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________________ ३२२ नाना प्रकार के युग्य में और डगण-यान विशेष में आरूढ होकर आते हैं। वे विचित्र रूप वाले पुरुष क्रीड़ा करते हुए अगीतार्थ मुनियों के चित्त का हरण कर लेते हैं, उन्हें लुब्ध . कर देते हैं। ३१७२.सामिद्धिसंदंसणवावडेण, तत्थोतपोतम्मि समंततेणं, भिक्खा - वियारादिसु दुप्पयारं ॥ वहां आने वालों की समृद्धि देखने के लिए आकुल चित्तवाले मुनि उनके मुख्य यान - वाहनों को देखते रहते हैं, इससे सूत्रार्थ का परिमंथ होता है। चारों ओर स्त्री पुरुषों से संकीर्ण हो जाने के कारण भिक्षाचर्या, विचारभूमी आदि में आना-जाना कष्टप्रद हो जाता है। ३१७३. दोसेहिं एत्तिएहिं, अगेण्हंता चेव लग्गिमो अम्हे । हामु य भुंजामु य, ण य दोस जहा तहा सुणसु ॥ शिष्य ने कहा- संखडी गमन में जो दोष आपने बताए हैं, उतने दोष तो संखडी भक्त न लेने पर भी हमारे लग जाते हैं। आचार्य ने कहा- हम संखडी भक्त लेते हैं या खाते हैं, उसमें वे पूवोक्त दोष नहीं होते। वे जैसे होते हैं, वह सुनो। ३१७४. अपरिग्गहिय अभुत्ते, जति दोसा एत्तिया पसज्जंती । विप्पस्सता तेसि परेसि मोक्खे। इत्थं गते सुविहिया, वसंतु रण्णे अणाहारा ॥ शिष्य बोला- यदि संखडी भक्त न लेने और न खाने पर भी इतने दोष होते हैं तो फिर सुविहित मुनियों को अनाहार रह कर अरण्य में रहना चाहिए । ३१७५. होहिंति न वा दोसा, ते जाण जिणो ण चेव छउमत्थो । पाणियसण उवाहणाउ णाविब्भलो मुयति ॥ आचार्य ने कहा- वत्स ! ये दोष होते हैं या नहीं, यह केवल जिन जानते हैं, छद्मस्थ नहीं जान सकता। पानी की आवाज सुनकर जूते नहीं छोड़े जा सकते। जो विह्वल होता है, मूर्ख होता है, वही जूते छोड़ता है, अविह्वल नहीं छोड़ता । ३१७६. दोसे चेव विमग्गह, गुणदेसित्तेण णिच्चमुज्जुत्ता । ण हु होति सप्पलोदी, जीविउकामस्स सेयाए । देखो, तुम गुणद्वेषी होने के कारण नित्य गुणान्वेषण उद्युक्त होते हुए भी दोषों की ही मार्गणा करते हो । जो व्यक्ति जीवित रहने की कामना रखता है उसकी सर्पलुब्धि - सर्प को ग्रहण करने की इच्छा उसके श्रेयस् के लिए नहीं होती । (इसी प्रकार संयमजीवन की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति के लिए अरण्यवास हितकर नहीं होता ।) १. उअपोते - देशीपदत्वात् आकीर्णे । (वृ. पृ. ८८९ ) Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् ३१७७. भण्णति उवेच्च गमणे, इति दोसा दप्पदो य जहि गंतुं । कम गहण भुंजणे या, न होंति दोसा अदप्पेणं ॥ शिष्य ने पूछा- बताएं, संखडी में कब कैसे गमन से दोष होते हैं और कब नहीं होते? आचार्य कहते हैं-यदि जानबूझकर संखडी में जाता है या दर्प से- बिना किसी कारण से जाता है तो दोष है। यदि गृहपरिपाटी के क्रम से संखडीगृह में जाता है, भोजन करता है तो कोई दोष नहीं है । तथा अदर्य-पुष्टालंबन से संखडी की प्रतिज्ञा से भी यदि जाता है तो दोष नहीं है। ३१७८. पडिलेहियं च खेत्तं पंथे गामे व भिक्खवेलाए । गामाशुगामियम्मिय, जहिं पायोग्गं तहिं लभते ॥ प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जाने के लिए प्रस्थित मुनियों के यदि मार्ग में अथवा उसी ग्राम में संखडी हो तो भिक्षावेला में हां जाना कल्पता है । ग्रामानुग्राम विहरण की स्थिति में भी जहां भिक्षावेला में प्रायोग्य की प्राप्ति होती है, वहां लेना कल्पता है। ३१७९. वासाविहारखेत्तं वच्चंताऽणंतरा जहिं भोज्जं । अत्तठिताण तहिं, भिक्खमडंताण कप्पेज्जा ॥ वर्षाविहार (वर्षावास) के क्षेत्र में जाते हुए बीच में कहीं भोज्य- संखडी प्राप्त हो और वहां संखडी के निमित्त नहीं, किन्तु स्वप्रयोजन से रहना हो तो भिक्षा के लिए घूमते हुए गृहपरिपाटी से संखडी से भक्त पान लेना कल्पता है। ३१८०.नत्थि पवत्तणदोसो, परिवाडीपडित मो ण याऽऽइण्णा । परसंसद्वं अविलंबियं च गेण्हंति अणिसण्णा ॥ वहां जाने पर प्रवर्तनादोष भी नहीं होता। गृहपरिपाटी में संखडी गृह आ जाने पर वह वहां भोजन ले सकता है। वह संखडी आकीर्ण भी नहीं है । न वहां परसंसृष्ट दोष होता है। वहां बिना रुके अविलंबित रूप से भिक्षा प्राप्त हो जाती है। ३१८१. संतऽन्ने वऽवराधा, कज्जम्मि जतो ण दोसवं जेसु । जो पुण जतणारहितो, गुणो वि दोसायते तस्स ॥ और भी अनेक अपराध (अनेषणीय आदि ग्रहणरूप) होते हैं, परन्तु कार्य अर्थात् पुष्टालंबन के कारण यतनापूर्वक प्रतिसेवना करने पर भी दोषभाक् नहीं होता। जो मुनि यतनारहित होता है उसके गुण भी दोष हो जाते हैं। ३१८२.असढस्सऽप्पडिकारे, अत्थे जततो ण कोइ अवराधो । सप्पडिकारे, अजतो, दप्पेण व दोसु वी दोसो ॥ जो मुनि अशठ - रागद्वेष रहित है, उसका किसी प्रयोजन में प्रतिसेवना के बिना कोई प्रतिकार नहीं है वह यदि यतनापूर्वक संखडी में जाता है तो कोई अपराध नहीं है। जो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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