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पहला उद्देशक
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प्रयोजन प्रतिकार के योग्य है, वहां यदि यतना नहीं की ३१८८.काएहऽविसुद्धपहा, सावय-तेणा पहे अवाया उ। जाती, दर्प से प्रतिसेवना करता है तो उसके अयतना और दंसण-बंभवता-ऽऽता, तिविधा पुण होति पत्तस्स ।। दर्प दोनों का दोष लगता है।
३१८९.दसणवादे लहुगा, सेसावादेसु चउगुरू होति। ३१८३.निद्दोसा आदिण्णा, दोसवती संखडी अणाइण्णा।
जीविय-चरित्तभेदा, विस-चरिगादीहि गुरुका उ॥ सुत्तमणाइण्णाते, तस्स विहाणा इमे होति॥ अविशुद्धपथ वाली संखडी में जाने से कायनिष्पन्न निर्दोष, संखडी आचीर्ण है और सदोष संखडी अनाचीर्ण प्रायश्चित्त आता है। प्रत्यपाय दो प्रकार के होते हैं-पथगत है। प्रस्तुत सूत्र अनाचीर्ण संखडी संबंधी है। उस अनाचीर्ण । और स्थानप्राप्त। पथगत अपाय दो प्रकार के है-श्वापद और संखडी के ये विधान-भेद हैं।
स्तेन और स्थानगत अपाय तीन हैं-दर्शनअपाय, ब्रह्मव्रत३१८४.जावंतिया पगणिया,
अपाय और आत्मअपाय। सक्खित्ताऽखित्त बाहिराऽऽइण्णा। दर्शन अपाय में चतुर्लघु और शेष अपायों में चतुर्गुरु का अविसुद्धपंथगमणा,
प्रायश्चित्त है। यदि संखडीकर्ता अन्यतीर्थिक हो तो वह जहर
सपच्चवाता य भेदाय॥ देकर जीवितभेद कर सकता है। चरिक आदि चारित्रभेद कर संखड़ियों के ये भेद हैं
सकते हैं। प्रत्येक में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। १. यावन्तिका ५. बाहिरा
३१९०.कप्पइ गिलाणगट्ठा, संखडिगमणं दिया व रातो वा। २. प्रगणिता ६. आकीर्णा
दव्वम्मि लब्भमाणे, गुरुउवदेसो त्ति वत्तव्वं ।। ३. सक्षेत्रा ७. अविशुद्धपथगमना
ग्लान के प्रयोजन से दिन या रात में संखडी में ४. अक्षेत्रा ८. सप्रत्यपाया
जाना कल्पता है। वहां ग्लान-प्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति यह जीवित भेद और चरण भेद के लिए होती है। होने पर उतनी ही मात्रा में वह ले, जितनी मात्रा ग्लान (व्याख्या आगे)
के लिए उपयुक्त हो। अधिक लेने का आग्रह करने पर ३१८५.आचंडाला पढमा, बितिया पासंडजाति-णामेहिं। उसे कहे-गुरु अर्थात् वैद्य का इतनी मात्रा का ही
सक्खेत्ते जा सकोस, अक्खित्ते पुढविमाईसु॥ उपदेश है। __ प्रथम अर्थात् यावन्तिका संखडी चांडाल पर्यन्त दातव्य ३१९१.पुव्विं ता सक्खेत्ते, असंखडी संखडीसु वी जतति। होती है। दूसरी अर्थात् प्रगणिता संखडी में पाषंडियों की पडिवसभमलब्भंते, ता वच्चति संखडी जत्थ॥ जाति अथवा नामों की गणना कर दिया जाता है। सक्षेत्रा ग्लान के लिए प्रायोग्य द्रव्य की सबसे पहले स्वग्राम की संखडी वह है जो सक्रोशयोजन पर होती है। अक्षेत्रा संखडी असंखडी में गवेषणा करनी चाहिए। वहां न होने पर संखडी सचित्त पृथ्वी आदि पर प्रतिष्ठित होती है।
में गवेषणा की जाती है। उसके अभाव में प्रतिवृषभग्राम ३१८६.जावंतिगाए लहुगा, चउगुरु पगणीए लग सक्खेत्ते।। में प्रयत्न करे। उसके अभाव में जिस ग्राम में संखडी हो
मीसग-सचित्त-ऽणंतर-परंपरे कायपच्छित्तं॥ वहां जाए। यावन्तिका में जाने पर चतुर्लघु, प्रगणिता में चतुर्गुरु, ३१९२.उज्जेंत णायसंडे, सिद्धसिलादीण चेव जत्तासु। सक्षेत्रा में चतुर्लघु, अक्षेत्रा यदि मिश्र, सचित्त, अनन्तर और सम्मत्तभाविएसुं, ण हुति मिच्छत्तदोसा उ॥ परंपरा प्रतिष्ठित है तो कायप्रायश्चित्त आता है।
(अथवा संखडी दो प्रकार की होती है-सम्यग्दर्शन.३९८७.बहि वुड्डि अद्धजोयण, गुरुगादी सत्तहिं भवे सपदं। भाविततीर्थ विषयक तथा मिथ्यादर्शनभाविततीर्थ विषयक।)
चरगादी आइण्णा, चउगुरु हत्थाइभंगो य॥ उज्जयंत, ज्ञातखंड, सिद्धशिला-इन सम्यक्त्वभावित क्षेत्र के बाहर संखडी में जाने पर चतुर्लघु, उसके बाद तीर्थों में होने वाली यात्रा संखडी में जाने से मिथ्यात्वआधे योजन की वृद्धि से चतुर्गुरु से प्रारंभ कर सात स्थिरीकरण आदि दोष नहीं होता। वृद्धियों से स्वपद अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त पर्यंत होता ३१९३.एतेसिं असईए, इतरीउ वयंति तत्थिमा जतणा। है। चरक आदि से आकुल संखडी आकीर्ण कहलाती है। पुट्ठो अतिक्कमिस्सं, कुणति व अण्णावदेसं तु॥ इसमें जाने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वहां इन तीर्थों में होनेवाली संखडी के अभाव में इतर अर्थात् अत्यधिक संमर्द से हाथ, पैर आदि के टूटने की संभावना मिथ्यात्वभाविततीर्थ में होनेवाली संखडी में जाया जा सकता होती है।
है। वहां जाने की यह यतना है-किसी के पूछे जाने पर
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