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________________ पहला उद्देशक ३२१ स्त्री का स्पर्श हो जाए तो आत्म-परोत्थ दोष होते हैं। मुनि स्त्री की प्रतिसेवना की इच्छा करता है तो संयमविराधना होती है और इच्छा न करने पर उड्डाह होता है। स्त्री के स्पर्श आदि से भुक्त-अभुक्त दोष होते हैं। ३१६३.आवासग सज्झाए, पडिलेहण भुंजणे य भासाए। वीयारे गेलण्णे, जा जहिं आरोवणा भणिया॥ आवश्यक, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षण, भोजन, भाषा, विचार और ग्लानत्व-इन विषयों में जहां जो आरोपणा कही गई है, वह ज्ञातव्य है। (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे की। गाथाओं में।) ३१६४.आवासगं तत्थ करेंति दोसा, सज्झाय एमेव य पेहणम्मि। उहुंच वारेतमवारणे य, आरोवणा ताणि अकुव्वओ जा॥ श्रमणों को आवश्यक, स्वाध्याय तथा प्रत्युपेक्षा करते हुए देखकर लोग उपहास करते हैं, उनके स्वरों में विद्रूप स्वर मिलाते हैं। मनाही करने पर कलह होता है और वर्जना न करने पर प्रवचन की अवहेलना होती है। यदि इस भय से आवश्यक आदि नहीं करते हैं तो आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। ३१६५.जं मंडलिं भंजइ तत्थ मासो, गारत्थिभासासु य एवमेव। - चत्तारि मासा खलु मंडलीए, उड्डाहो भासासमिए वि एवं॥ सभा आदि स्थानों में भोजन मंडली को तोड़ने पर मासलघु तथा गृहस्थ की भाषा बोलने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। वहां यदि मंडली में भोजन करते हैं तो चार लघुमास, उड्डाह भी होता है। यही भाषा समिति विषयक प्ररूपणा है। ३१६६.थोवे घणे गंधजुते अभावे, दवस्स वीयारगताण दोसा। आवायसंलोगगया य दोसा, करेंतऽकुव्वं परितावणादी॥ विचारभूमी अर्थात् शौचभूमी में गए हुए मुनियों संबंधी ये दोष होते हैं-द्रव अर्थात् पानी थोड़ा, घन-कलुषित, गंधयुक्त, है अथवा उसका अभाव है तो अवर्णवाद आदि होता है। विचारभूमी में आपात और संलोक संबंधी भी दोष होते हैं। यदि दोष के भय से संज्ञा को धारण करते हैं तो परितापना आदि दोष होते हैं। ३१६७.गिलाणतो तत्थऽतिभुंजणेण, उच्चारमादीण व सण्णिरोधा। अगुत्तसिज्जासु व सण्णिवासा, उड्डाह कुव्वंतिमकुव्वतो य॥ संखडी में अतिमात्र भोजन करने से अथवा स्थान गृहस्थों से आकीर्ण होने के कारण उच्चार आदि वेग के सन्निरोध के कारण तथा अगुप्त वसति में रहने के कारण ग्लानत्व हो जाता है। यदि ग्लान वहां उच्चार-प्रस्रवण आदि करता है तो लोग उड्डाह करते हैं। यदि नहीं करता है तो निरोध के कारण परितापना आदि होती हैं। ३१६८.बहिया य रुक्खमूले, छक्काया साण-तेण-पडिणीए। मत्तुम्मत्त विउव्वण, वाहण जाणे सतीकरणं॥ गांव के बाहर वृक्षमूल में रहने पर षट्काय विराधना होती है। कुत्ते, स्तेन या प्रत्यनीक का उपद्रव होता है। वहां मत्त-उन्मत्त व्यक्ति विकुर्वणा कर आते हैं। वाहन, यान आदि आते हैं। उनको देखकर पूर्वस्मृति उभर आती है। ३१६९.मा होज्ज अंतो इति दोसजालं, तो जाति दूरं बहि रुक्खमूले। अभुज्जमाणे तहियं तु काया, अवाउते तेण सुणा य णेगे। ग्राम में रहने पर पूर्वोक्त दोषजाल न हो इसलिए मुनि ग्राम से दूर वृक्षमूल में रहता है। अभुज्यमान उस प्रदेश में छहों कायों की विराधना होती है तथा वह स्थान अपावृत होने के कारण वहां स्तेन, कुत्ते और अनेक प्राणियों का उपद्रव होता है। ३१७०.उम्मत्तगा तत्थ विचित्तवेसा, पढंति चित्ताऽभिणया बहूणि। कीलंति मत्ता य अमत्तगा य, तस्थित्थि-पुंसा सुतलंकिता य॥ वहां उन्मत्त व्यक्ति विचित्रवेश धारण कर, अनेक प्रकार का अभिनय करते हुए आते हैं और अनेक प्रकार के श्रृंगारकाव्यों का पठन करते हैं तथा मत्त-अमत्त स्त्री-पुरुष सम्यग् प्रकार से अलंकृत होकर वहां आते हैं और क्रीडा करते हैं। ३१७१.आसे रहे गोरहगे य चित्ते, ___ तत्थाभिरूढा डगणे य केइ। विचित्तरूवा पुरिसा ललंता, हरंति चित्ताणविकोविताणं॥ वहां आने वाले स्त्री-पुरुष अश्वों, रथों, बैलगाड़ियों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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