________________
३३८
३२९८. कडपल्लाणं सण्णा, तणपल्लाणं च देसितो वलया।
णिप्परिसाडिमभुज्जतगा य कयभूमिकम्मंता॥ कटपल्य, तृणपल्य और वलय-ये देशीभाषा के एकार्थ शब्द हैं। ऊपरीतल में बद्ध इनमें धान्य रखा जाता है। वहां वे धान्य परिशाटित नहीं होते, अभुज्यमान अर्थात् अव्यापार्यमाण होते हैं, तथा वहां की भूमी को लेपन आदि से तैयार कर लिया जाता है, उसके नीचे के आश्रय में रहना कल्पता है।
३२९९. चाउस्सालघरेसु व, जत्थोव्वर - कोट्ठएसु धण्णाई । निच्चदुइतमभोगा, तेसु निवास न वारेइ ॥ चतुःशाला आदि गृहों में जहां उपाश्रय हो वहां के अपवरक में, अथवा कोठों में धान्य रखा जाता है। वे सदा बंद रहते हैं और वे परिभोग में नहीं आते। उनके अतिरिक्त शेष अपवरकों तथा कोठों में रहना वर्ज्य नहीं है। ३३००. सालीहिं वीहीहिं, तिल-कुलत्थेहिं विप्पकिण्णेहिं । आदिण्णे वितिकिण्णे, अहलंद ण कप्पती वासो ॥ शालि - कलमधान, ब्रीही लालरंग वाला साठी धान, तिल और कुलत्थ - इन धान्यों से विप्रकीर्ण, आकीर्ण या व्यतिकीर्ण उपाश्रय में यथालंदकाल तक वास करना भी नहीं कल्पता ।
३३०१. सालीहिं व वीहीहिं व, इति उत्ते होति एतदुत्तं तु ।
सालीमादीयाणं, होंति पगारा बहुविहा उ॥ पूर्व श्लोक में शालि, ब्रीही आदि में जो बहुवचन का निर्देश किया गया है, उससे यह ज्ञात होता है कि शालि आदि धान्यों के बहुविध प्रकार होते हैं। जैसे - कलमशालि, रक्तशालि महाशालि आदि ।
३३०२. उक्त्ति भिन्नरासी, विक्खिते तेसि होति संबंधो। वितिकिण्णे सम्मेलो, विपइण्णे संथडं जाणे ॥ उत्क्षिप्त अर्थात् धान्यों की पृथक-पृथक राशियां, विक्षिस अर्थात् पृथक्-पृथक् धान्यराशियां परन्तु एक ओर से जुड़ी हुई, व्यतिकीर्ण अर्थात् वे सारी धान्यराशियां एक ओर से सम्मिलित व्यतिकीर्ण पद से उन सभी धान्यों का सम्मीलक और विप्रकीर्ण पद से उन धान्यों का संस्तृत - बिखराव जानना चाहिए।
३३०३. तिविहं च अहालंद, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं ।
उदउल्लं च जहणं, पणगं पुण होइ उक्कोसं ॥ यथालंद तीन प्रकार का है जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | जितने समय में आर्द्र हाथ सूखता है वह जघन्य
बृहत्कल्पभाष्यम्
यथालंद है, पांच रात दिन का काल उत्कृष्ट यथालंद है और इनका अपान्तरालवर्ती काल मध्यम यथालंद है। ३३०४. बीयाई आइण्णे, लहुओ मासो उठायमाणस्स ।
आणादिणो अ दोसा, विराहणा संजमाऽऽताए । बीजों आदि से आकीर्ण उपाश्रय में रहने से लघुमास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्मविराधना होती है। (वृत्ति में आचार्य आदि तथा प्रवर्तिनी आदि के प्रायश्चित्त का नानात्व प्रतिपादित है।)
Jain Education International
३३०५. उक्खित्तमाइएसं घिरा ऽधिरेसुं तु ठायमाणस्स । पणगादी जा भिण्णो, विसेसितो भिक्खुमाईणं ॥ ३३०६. साहारणम्मि गुरुगा, दसादिगं मासे ठाति समणीणं । मासो विसेसिओ वा, लहुओ साहारणे गुरुगो ॥ स्थिर अस्थिर भेद वाले उत्क्षिप्त आदि पदों में भिक्षु आदि श्रमणों के पंचक प्रायश्चित्त से प्रारंभ कर भिन्नमास पर्यन्त तप और काल से विशेषित प्रायश्चित्त विहित है।
साधारण वनस्पति के बीज विषयक यही प्रायश्चित्त गुरुक हो जाता है। मुनियों के लिए यह गुरूपंचक से प्रारंभ होकर गुरुपचीस पर्यन्त होता है। श्रमणियों के लिए लघु दस रातदिन से प्रारंभ होकर लघुमास तक जाता है। अथवा भिक्षु आदि के साधारण वनस्पति के बीजों के उत्कीर्ण आदि चारों में सामान्यतः तप और काल से विशेषित मासलघु का प्रायश्चित्त है तथा अनन्तवनस्पति के बीजों के उत्कीर्ण आदि चारों में सामान्यतः तप और काल से विशेषित मासगुरु का प्रायश्चित्त विहित है। ३३०७. सालि जब अच्छि सालुग,
णिस्सरणं मास मुग्गमादीसु ।
सस्सू गुज्झ कुतूहल,
विप्पइरण मास णिस्सरणं ॥ वैसे उपाश्रय में रहने वाले साधुओं के शालि और यवों के शालुक-सूक्ष्म कण आंखों में गिर सकते हैं। वहां यदि मुद्ग और माष-उड़द आदि विकीर्ण हों तो साधुओं के गमनागमन करते समय निस्सरण फिसलन हो सकता है। यहां श्वश्रू का दृष्टान्त है - एक गृहस्थ के मन में यह कुतूहल उत्पन्न हुआ कि मैं मेरी सास का गुह्य प्रदेश देखूं उसने उसके गमनागमन के मार्ग पर उड़द बिखेर दिए। वह आई और वहां फिसल कर गिर पड़ी वह नग्नसी अवस्था में सीधी पड़ी। उस गृहस्थ का कुतूहल शांत हो गया।
१. विप्रकीर्ण - इतस्ततो विक्षिप्तः । आकीर्ण-एकजातीयधान्यैः अभिव्याप्तः । व्यतिकीर्ण - अनेकजातीयधान्यैः संकुलः । २. यथालंदकाल | देखें ३३०३ श्लोक ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org