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दूसरा उद्देशक ३३०८.बिइयपय कारणम्मि,
पुव्विं वसभा पमज्ज जतणाए। विक्खिरणम्मि वि लहुओ,
तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ अपवाद स्वरूप 'कारण' में वहां रहा जा सकता है। पहले वृषभ मुनि यतनापूर्वक उस उपाश्रय का प्रमार्जन कर दे। यदि प्रमार्जन करते समय बीजों के विकिरण को इतस्ततः विक्षेपण करते हैं तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३३०९.गीया पुरा गंतु समिक्खियम्मि,
थिरे पमज्जित्तुमहाथिरे वा। साहट्टमेगंति वसंति लंद,
उक्कोसयं जाणिय कारणं वा॥ अध्वनिर्गत मुनि गांव में पहुंचे। सबसे पहले गीतार्थ मुनि गांव में जाकर वसति की प्रत्युपेक्षा करे। बीजरहित वसति न मिलने पर स्थिर संहनन वाले बीजों से आकीर्ण वसति में रहे। उसके अभाव में अस्थिर संहनन वाले बीजों से आकीर्ण वसति में रहे। उन बीजों का एक ओर संहरण कर यथालंद वहां रहे। कारण को जानकर उत्कृष्ट यथालंद काल तक भी रहा जा सकता है।
अह पुण एवं जाणेज्जा-नो उक्खिण्णाइं नो विक्खिण्णाइं नो विइकिण्णाइं नो विप्पकिण्णाई रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहिताणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए।
(सूत्र २) ३३१०.रासीकडा य पुंजे-कुलियकडा पिहित मुदिते चेव।
ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थ सुत्तं तु॥ जिस उपाश्रय में बीज राशीकृत, पुंजीकृत, कुलिकाकृत, पिहित, मुद्रित हों वहां रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। सूत्र तो गीतार्थ विषयक है। ३३११.पुंजो य होति वट्टो, सो चेव य ईसिआयतो रासी।
कुलिया कुड्डल्लीणा, भित्तिकडा संसिया भित्ती॥ १. इष्टकादिरचिता भित्तिः। मृत्पिण्डादिनिर्मितं कुड्यम्।
जो धान्य के ढेर वृत्ताकार होता है वह है पुंज, जो थोड़ा आयत अर्थात् लंबा होता है वह है राशि। कुलिका का अर्थ है भीत। जो कुड्यालीन अर्थात् मिट्टी की भीत के साथ रखे जाते हैं वे हैं कुलिकाकृत। जो ईंटों की भींत के आश्रित स्थापित हैं वे भित्तिकृत कहलाते हैं।' ३३१२.छारेण लंछिताई, मुद्दा पुण छाणपाणियं दिण्णं ।
परिकल्लाई करेत्ता, किलिंजकडएहिं पिहिताई। लांछित का अर्थ है-राख से चिन्हित और जहां गोबर का पानी दिया जाता है, छांटा जाता है वह है मुद्रित। जो चटाई आदि से ढंके जाते हैं वे हैं पिहित। (ऐसे बीज वाले स्थानों में, हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गीतार्थ को रहना कल्पता है, अगीतार्थ को नहीं) ३३१३.नत्थि अगीतत्थो वा, सुत्ते गीतो व वण्णितो कोइ।
जा पुण एगाणुण्णा, सा सेच्छा कारणं किं वा॥ प्रस्तुत सूत्र में अगीतार्थ या गीतार्थ का कोई निर्देश नहीं है। अतः आप एक को अनुज्ञा देते हैं और दूसरे को प्रतिषेध करते हैं, यह आपकी इच्छा है। यदि कोई कारण हो तो बताएं। ३३१४.एयारिसम्मि वासो,
ण कप्पती जति वि सुत्तऽणुण्णातो। अव्वोकडो उ भणितो,
आयरिओ उहती अत्थं॥ आचार्य ने कहा यद्यपि सूत्र में ऐसे उपाश्रय में रहना अनुज्ञात है, फिर भी वहां रहना नहीं कल्पता, क्योंकि अव्याकृत अर्थ ही सूत्र में कहा गया है। आचार्य उसके अर्थ की उत्प्रेक्षा करते हैं। (जैसे कुंभकार एक मृत्पिंड से अनेक वस्तुओं का निर्माण करता है, वैसे ही आचार्य भी एक सूत्र पद से अनेक अर्थों की विकल्पना करते हैं।) ३३१५.जं जह सुत्ते भणितं, तहेव तं जइ वियालणा नत्थि। ___किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं।
सूत्र में जो कथन जिस रूप में अर्थात् विधिरूप में या प्रतिषेधरूप में है उसे यदि वैसे ही स्वीकार किया जाए और यदि उसके युक्त-अयुक्त का विमर्श न किया जाए तो फिर दृष्टिप्रधानवाले तीर्थंकरो और गणधरी ने कालिकानुयाग आदि विभाग क्यों दिए ? अथवा भद्रबाहुस्वामी ने नियुक्ति के माध्यम से कालिकश्रुतानुयोग का प्रतिपादन क्यों किया? ३३१६.उस्सग्गसुतं किंची, किंची अववातियं भवे सुत्तं।
तदुभयसुत्तं किंची, सुत्तस्स गमा मुणेयव्वा॥ सूत्र चार प्रकार के हैं-१. कुछ उत्सर्गसूत्र हैं २. कुछ
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