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________________ दूसरा उद्देशक उवस्सए बीज-पदं ३२९३.नामं ठवणा दविए, भावे य उवस्सओ मुणेयव्वो। एएसिं नाणतं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए। उवस्सयस्स अंतो वगडाए सालीणि वा उपाश्रय शब्द के चार निक्षेप हैं नाम उपाश्रय, स्थापना वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा उपाश्रय, द्रव्य उपाश्रय और भाव उपाश्रय। मैं उनका नानात्व तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोहूमाणि वा क्रमशः कहूंगा। जवाणि वा जवजवाणि वा 'उक्खिण्णाणि ३२९४.दव्वम्मि ऊ उवस्सओ, कीरइ कड वुत्थमेव सुन्नम्मि। ___भावम्मि निसिढे संजएसु दव्वम्मि इयरेसु॥ वा विक्खिण्णाणि वा' विइकिण्णाणि वा द्रव्य उपाश्रय वह है जो साधुओं के लिए बनाया जा रहा विप्पकिण्णाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण है या बनाया गया है या जहां साधु रहकर अभी गए हैं और वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। वह अभी शून्य पड़ा है। पार्श्वस्थ आदि को दिया हुआ (सूत्र १) उपाश्रय भी द्रव्य उपाश्रय है। भाव उपाश्रय वह है जो संयतों को प्रदत्त है और वे वहां रह रहे हैं।' ३२९०.एरिसए खेत्तम्मी, उवस्सए केरिसम्मि वसितव्वं। ३२९५.उवसग पडिसग सेज्जा, पुव्वुत्तदोसरहिते, बीयादिजढेस संबंधो॥ आलय वसधी णिसीहिया ठाणे। ऐसे आर्यक्षेत्र में विहरण करने वाले मुनियों को कैसे एगट्ठ वंजणाई, उपाश्रय में निवास करना चाहिए? पूर्वोक्त दोषो से उवसग वगडाय निक्खेवो॥ रहित, बीज आदि से वर्जित उपाश्रय में रहे। यह पूर्व सूत्र से उपाश्रय शब्द के सात एकार्थिक हैं-उपाश्रय, प्रतिश्रय, संबंध है। शय्या, आलय, वसति, नैषेधिकी तथा स्थान। वगडा के ३२९१.अहवा पढमे सुत्तम्मि पलंबा वण्णिया ण भोत्तव्वा।। निक्षेप करने चाहिए। तेसिं चिय रक्खट्ठा, तस्सहवासं निवारेति॥ ३२९६.एमेव होति वगडा, चउव्विहा सा उ वतिपरिक्खेवो। अथवा प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में प्रलंब का वर्णन है। दव्वम्मि तिप्पगारा, भावे समणेहि भुज्जंती॥ उनको खाने का प्रतिषेध है। उन प्रलंबों की रक्षा के लिए वे इसी प्रकार वगडा के भी चार प्रकार हैं-नाम वगडा, जहां हों वहां रहना वर्जित है। स्थापना वगडा, द्रव्य वगडा और भाव वगडा। द्रव्य वगडा ३२९२.अवि य अणंतरसुत्ते, है-घर से संबंधित वृतिपरिक्षेप। उसके तीन प्रकार हैंउवस्सतो अधिकतो णिसिं जत्थ। सचित्त, अचित्त और मिश्र। साधुओं द्वारा जिस वृतिपरिक्षेप समणाण न निग्गंतुं, का परिभोग किया जा रहा है, वह है भाव वगडा। कप्पति अह तेण जोगो उ॥ ३२९७.वलया कोट्ठागारा, हेट्ठा भूमी य होइ रमणिज्जा। यहां 'अपि' का अर्थ है कि पूर्वोक्त (३२९०,३२९१) दो बीएहिं विप्पमुक्को, उवस्सओ एरिसो होइ॥ श्लोक ही संबंध ज्ञापक नहीं हैं, तीसरा भी है। अनन्तरसूत्र जहां वलय और कोष्ठागार होते हैं, उनके नीचे की भूमी में वैसा उपाश्रय अधिकृत है जहां से अकेले श्रमण को रात्री रमणीय होती है, बीजों से रहित होती है। ऐसा उपाश्रय में बाहर जाना नहीं कल्पता। यह उस सूत्र के साथ संबंध है। बीजों से विप्रयुक्त होता है। १. जो समणट्ठाए कतो, वुत्था वा आसि जत्थ समणा उ। अहवा दव्वउवस्सओ, पासत्थदीपरिग्गहिओ॥ (वृ. पृ. ९२५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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