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________________ विषयानुक्रमणिका -४३ ६५५ गाथा संख्या विषय ५४२,५४३ शय्याकल्प के प्रकार व उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ५४४-५५३ वसति को शून्य छोड़ने से उत्पन्न दोष। ५५४-५६४ बाल मुनि को वसतिपाल के रूप में बिठाकर जाने से उत्पन्न होने वाले दोष। ५६५,५६६ वसति की रक्षा के लिए योग्य-अयोग्य का कथन। विविध प्रसंगों में वसति की रक्षा कैसे की जाए। इसका विवेचन। ५८० शय्याग्रहण कल्पिक कौन? ५८१-५८३ वसति के सात मूलकरण और सात उत्तरकरण। ५८४-५८६ मतान्तर से अन्य उत्तरकरण व उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त। ५८७ वसति के मूलकरण और उत्तरकरण संबंधित चतुर्भंगी। ५८८-५९२ सप्रत्यवाय वसति का स्वरूप और उसमें रहने से प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। ५९३-६०२ शय्या के नौ प्रकार। उनमें रहने आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त व उनमें रहने की यतना। ६०३-६०५ वस्त्र कल्पिक की परिभाषा। ६०६-६०८ वस्त्रों का स्वरूप, ग्रहण विधि और अविधि से निष्पन्न प्रायश्चित्त। ६०९-६१४ गच्छवासी मुनियों की वस्त्रग्रहण की चार प्रतिमाएं तथा जिनकल्पिक मुनियों की दो प्रतिमाएं और उनका विवेचन। ६१५,६१६ वस्त्र आनयन के योग्य मुनि का कथन। वस्त्र ग्रहण के लिए आचार्य जाएं तो प्रायश्चित्त। ६१८ वस्त्र प्राप्ति के लिए गीतार्थ के साथ जाना। । ६१९,६२० गमन से पूर्व कायोत्सर्ग क्यों ? और उसकी संपन्नता का निर्देश। ६२१,६२२ कायोत्सर्ग आदि पदों में अविधि करने पर प्रायश्चित्त। ६२३ वस्त्र ग्रहण से पहले पूरी पृच्छा न करे तो दोष। ६२४,६२५ पृच्छा करने के कारण। ६२६-६२८ प्रक्षेपक दोष किन-किन स्थानों में। ६२९ प्रक्षेपण और निक्षेपण में अंतर। ६३० छिन्न और अच्छिन्न निक्षेपण में विवेक। ६३१ दूर देश में चले गए साधु के स्थापित वस्त्र परिष्ठापनीय। गाथा संख्या विषय ६३२-६४२ ये वस्त्र किसके हैं? इस प्रश्न को सुन द्रमक दुर्भग, भ्रष्ट आदि के मन में उत्पन्न अप्रीति व उसको उपशांत करने का उपाय। ६४३-६४७ पृच्छा से शुद्ध वस्त्र ग्रहण की अनुज्ञा। ६४८ प्राप्त वस्त्रों का विभाजन कैसे? ६४९-६५२ द्रव्य पात्र व भाव पात्र के प्रकार। पात्र ग्रहण और कारण में विपर्यास होने पर प्रायश्चित्त। ६५४ पात्र गवेषणा की चार प्रतिमाएं। तीन प्रकार के पात्रों का स्वरूप। उज्झित पात्रों के चार प्रकार। क्षेत्रोज्झित पात्र का स्वरूप। ६५८ कालोज्झित पात्र का स्वरूप। ६५९ भावोज्झित पात्र का स्वरूप। ६६० पात्र के उत्पादन (प्राप्ति) विषयक आठ पृच्छाएं। ६६१ दृष्ट और रिक्त पात्र ग्रहण योग्य। ६६२ कृतमुख और वहमानक पात्र ग्रहण योग्य। ६६३ प्रासुक अन्न आदि से संसृष्ट व आर्द्र तथा गृही द्वारा उत्क्षिप्त पात्र ग्रहण योग्य। प्रकाशमुख वाला पात्र ग्राह्य। ६६५-६६७ तीन बार प्रस्फोटन किया गया पात्र शुद्ध तथा प्रस्फोटन की विधि। ६६८ पात्र के मूलगुण और उत्तरगुण की चतुर्भगी। अवग्रह के पांच प्रकार। ६७० कौन सा अवग्रह बलीयान्। ६७१ प्रत्येक आग्रह के चार-चार प्रकार। इनमें भी क्षेत्र की प्रधानता। ६७२-६७६ अवग्रह के स्वामित्व का चिंतन। ६७७,६७८ विभिन्न अवग्रहों में जघन्य और उत्कृष्ट का विवेचन। ६७९,६८० गृहपति द्वारा सारे अवग्रह की अनुज्ञा देने पर भी मुनि सीमा का निर्धारण करे। ६८१ द्रव्यावग्रह का कथन। ६८२,६८३ देवेन्द्र आदि अवग्रह का कालमाण। ६८४ भावावग्रह का स्वरूप। भावावग्रह के दो प्रकार। ६८६ ज्ञात और अज्ञात अवग्रह का विवेक। ६८७ इक्कड, कढिण आदि के संस्तारक ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त। ६८५ www mm Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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