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________________ सम्पादकीय आचार्य तब कहते हैं- 'आर्यो। तुमने मेरे अभिप्राय को नहीं समझा। क्या मैं सचित आम मंगा सकता हूं? मैं कह रहा था कि शुक्लाम्ल लवण से भावित आम, छिन्न किया हुआ तथा भोजन के द्वितीय अंग के रूप मैं अर्थात् शाकरूप में पकाया हुआ आम लाना है।' इन तीनों में परिणामक शिष्य की मति आगमों से अनुमोदित और निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुकूल थी। ऐसे शिष्य को कल्प और व्यवहार का सूत्रार्थं सापवावरूप में जैसे गुरुमुख से सुना है, धारण किया है, उसी रूप में उसको दे और यदि सूत्र और अर्थ की व्यवच्छित्ति का प्रसंग आए वहां अन्यान्य शिष्यों को भी वह दिया जा सकता है। गच्छ के निस्तारण का क्रम भाष्य में स्थान-स्थान पर गण की अव्यवच्छित्ति के लिए अनेक प्रकार के उदाहरण दिए गए हैं। एक गच्छ में आचार्य, अभिषेक, भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर मुनि हैं। बाढ़, अग्निदाह, चौरों का उपद्रव, अवम दुर्भिक्ष, महान् अरण्य में भटक जाना, बुभुक्षा, ग्लानत्व आदि गाढ़ कारण में फंस जाने पर तीर्थ के अव्यवच्छेद के लिए, जो विशिष्ट मुनि होता है, वह किस विधि से उनका निस्तारण करे, इसको भाष्यकार ने विस्तार से समझाया है। आचार्य गच्छ के साथ एक नगर में स्थित थे। अकस्मात् एक दिन वहां बाढ़ का प्रकोप हुआ सारा नगर हाहाकार से व्याप्त हो गया । गच्छ बाद में बहने लगा। अब प्रश्न हुआ कि गच्छ में पांच घटकों में से किसकिसको बचाया जाए? इसके समाधान में कहा गया कि यदि साधु समर्थ हो तो पांचों घटकों का निस्तारण करे और यदि इतना समर्थ न हो तो क्या किया जाए ? भाष्यकार के सामने यह प्रश्न आया तो उन्होंने इसके समाधान में अनेक गाथाओं की रचना की। उन्होंने लिखा 'सव्वे वि तारणिज्जा, संदेहाओ परक्कमे संते। एक्क्कं अवणिज्जा, जाव गुरू तत्थिमो भेओ ।' यदि साधु में पराक्रम हो तो वह सभी को बचाए । यदि पराक्रम की न्यूनता हो तो स्थविर को छोड़कर शेष चार को बचाए। यदि उतना भी पराक्रम न हो तो क्षुल्लक को भी छोड़ दे, उतना भी सामर्थ्य न हो तो केवल दो को - आचार्य और अभिषेक को बचाए, उतना भी सामर्थ्य न हो तो केवल आचार्य को बचाए। क्योंकि आचार्य के रहने पर ही गच्छ की अव्यवच्छित्ति रह सकती है। इसी प्रकार आर्यायों के विषय में जानना चाहिए। इनके पांच भेद इस प्रकार हैं-प्रवर्तनी, अभिषेका, स्थविरा, भिक्षुणी, क्षुल्लिका। बाढ़ में इनका निस्तारण भी पूर्ववत् जानना चाहिए। प्रश्न होता है कि लोक में भी बाल वृद्ध और अपंग अनुकंपनीय होते हैं तो फिर उनको बचाने में प्राथमिकता क्यों नहीं? तरुण चिरजीवी होता है, स्थविर अल्पायुष्क वाला होता है अतः तरुण को बचाने से प्रवचन की वृद्धि होती है। तरुण गण का वृद्धिकर होता है, शिष्यों को सूत्रार्थ देने में समर्थ होता है, गण के लिए पात्र, वस्त्र आदि का उत्पादक होता है। जिज्ञासु ने पूछा- क्या इसमें व्युत्क्रम भी होता है ? हां, व्युत्क्रम भी होता है। जिसमें लाभ अधिक और व्यय कम होता है, उसको वणिग्भूत होकर हम व्युत्क्रम करते हैं। हम सोचते हैं किसको ग्रहण करने से प्रभूत लाभ और अल्प व्यय होता है, उसको हम प्राथमिकता देते हैं। जिस पात्र को बचाने से प्रवचन की प्रभावना और तीर्थ की अव्यवच्छित्ति हो सकती है, उसको प्रथमरूप से तारणीय मानते हैं और शेष दो नंबर में आते हैं। हम आर्याओं को बचाने के लिए प्राथमिकता से कार्य करते हैं, क्योंकि स्त्रियां स्वभावतः भयबहुल होती हैं वे दूसरों के संकट को देखकर पवन के संपर्क से लता की भांति कांपने लग जाती हैं, इसलिए स्त्रियां प्रथम तारणीय होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only २५ www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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