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________________ २६ बृहत्कल्पभाष्यम् अवग्रह इस प्रकार हम देखते हैं कि भाष्यकार प्रत्येक वस्तु के सैद्धांतिक रूप को भी मनोवैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस भाष्य में अनेक स्थानों पर ऐतिहासिक घटनाक्रमों का उल्लेख हुआ है। 'अवग्रह' विषय में भाष्यकार ने भगवान् ऋषभ क समय के भरत का एक प्रसंग उद्धृत किया है। वह इस प्रकार है __ एक बार भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर समवसृत हुए। महाराज भरत ने यह सुना और वे अपने परिवार के साथ दर्शन करने निकल पड़े। उनका पूरा दल-बल साथ था। पूरे ऐश्वर्य से मंडित होकर वे चले। उन्होंने सोचा भगवान् को वंदना कर, स्तुति कर, साधुओं को भक्तपान के लिए निमंत्रित करूंगा। इसलिए उन्होंने अपने साथ पांच सौ शकट भक्तपान से भर कर ले लिए। वे वहां आए, वंदना-स्तुति कर, भक्तपान ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया। भगवान् ने तब कहा 'पीलाकरं वताणं, एयं अम्हं न कप्पए घेत्तुं। अणवजं निरुवहयं, भुजंति य साहुणो भिक्खं।' 'भरत ! आधाकर्म, राजपिंड आदि भक्तपान व्रतों के लिए पीड़ाकर होते हैं, इसलिए वैसा भक्तपान साधुओं के लिए नहीं कल्पता। इसलिए प्रासुक और एषणीय भिक्षा साधु लेते हैं। वही कल्पनीय है।' भगवान् के ये वचन सुनकर भरत को अत्यंत मानसिक दुःख हुआ और वे खिन्न हो गए। उन्होंने सोचा'समणा अणुग्गहं मे, ण कुव्वंति अहो! अहं चत्तो-ओह! मैं मंदभाग्य हूं। ये श्रमण मेरे पर अनुग्रह नहीं कर रहे हैं। मैं इनके द्वारा परित्यक्त हो गया हूं।' देवेन्द्र ने उनके इस मानसिक कष्ट को जाना और उन्हें अपने स्वामित्व की सीमा का अवबोध देने के लिए भगवान् ऋषभ से अवग्रह के विषय में पृच्छा की। भगवान् कहते हैं-देवेन्द्र! अवग्रह पांच हैं देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गृहपत्यवग्रह, शय्यातरावग्रह, साधर्मिकावग्रह। अवग्रह का अर्थ है-स्वामित्व। देवेन्द्र जितने क्षेत्र का स्वामी होता है, उतना उसका अवग्रह है। इसी प्रकार चक्रवर्ती आदि महर्द्धिक पृथ्वीपति जितने क्षेत्र के प्रभुत्व का अनुभव करता है, वह उसका अवग्रह है। इसी प्रकार गृहपति अर्थात् सामान्य राजा, शय्यातर तथा सामान्य गृहस्थ-इनके अपने-अपने अवग्रह होते हैं, स्वामित्व की सीमा होती है। भगवान् से अवग्रह की बात सुनकर देवेन्द्र ने अपने अवग्रह में साधुओं को निमंत्रित कर उनके प्रायोग्य अन्न-पान का वितरण किया। यह सुनकर भरत बहुत प्रसन्न हुए और अपने अवग्रह में साधुओं को निमंत्रित कर उनके प्रायोग्य भक्त-पान दिया। सोचा-आज अनायास यह बड़ा लाभ प्राप्त हुआ है। उन्होंने संपूर्ण भारत में प्रासुक भक्तपान साधुओं को देने की व्यवस्था की। उत्सारकल्पिक शिष्य ने जिज्ञासा के स्वरों में पूछा-'भंते! आपने कुछेक कल्पिकों का विस्तार से वर्णन किया। जैसे पिंडकल्पिक, अवग्रहकल्पिक, लेपकल्पिक, विहारकल्पिक आदि। उनमें उत्सारकल्पिक का उल्लेख नहीं है।' आचार्य ने कहा-'उत्सारकल्पिक होता नहीं है।' शिष्य ने पुनः पूछा-'यदि उत्सारकल्पिक नहीं होता है तो फिर इस भाष्य में उसका नामोल्लेख कैसे किया गया है?' आचार्य ने कहा-'यद्यपि उत्सारकल्प व्यवहृत होता है, फिर भी उत्सारकल्प करना नहीं कल्पता। जो उत्सारकल्प करता है और जो उत्सारकल्प करवाता है-दोनों प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।' उत्सारकल्प का अर्थ है-आगमों का इस प्रकार से अध्ययन-अध्यापन कराना कि आगमों के पूरे अंशों का अध्ययन न कर केवल आगमों का चंचुपात करना। इससे पढ़ने वाले को पूरा ज्ञान नहीं होता और वह अधूरे ज्ञान के आधार पर अपने-आपको वाचक, आचार्य या उपाध्याय के रूप में प्रस्तुत करता है। उस अधूरे ज्ञान से पग-पग पर पराभव का सामना करना पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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