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सम्पादकीय
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एक बार एक गांव में वाचक पदधारी आचार्य अपने शिष्यों के साथ आए। उन्होंने वहां अन्यान्य मत के वादियों को वाद में पराजित कर निर्ग्रन्थ प्रवचन का झंडा फहराया। पराजित वादियों के मन में ईर्ष्या की आग भभक उठी। वे पराजय का बदला लेने के लिए उतावले हो गए। उन्होंने जैनों से कहा हम एक बार वाद करना चाहेंगे। कछ दिनों बाद उत्सारकल्पिक वाचक वहां आए। वाद का आयोजन निश्चित किया गया। अन्ययथिक लोगों ने वाचक के ज्ञान की थाह लेने के लिए एक प्रच्छन्न वेषधारी प्रत्युपेक्षक को भेजा। उसने वाचक से प्रश्न किया-परमाणु पुद्गल में कितनी इन्द्रियां होती हैं? वाचक ने सोचा-वह परमाणु एक समय में लोकान्त तक चला जाता है। निश्चित ही वह पंचेन्द्रिय होना चाहिए। यह उत्तर सुनकर पर्यवेक्षक ने जान लिया कि यह वाचक केवल बाहर से गर्जना करता है, परन्तु है असार। अन्ययूथिक आए और उस वाचक के सामने गहरे प्रश्न रखकर उसे निरुत्तर कर डाला। उसे बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा। जिनशासन की भी अवहेलना हुई।
अधूरे ज्ञान का यह प्रभाव है। इसीलिए उत्सारकल्प मान्य नहीं है। उत्सर्ग-अपवाद
इस प्रकार भाष्य साहित्य अनेक बिन्दुओं को स्पष्ट करता है और उनकी पूरी अवगति देता है। यह प्राचीन परंपराओं का संग्राहक और अवबोधक है। भाष्यों के अध्ययन से ऐसा लगा कि एक भी नियम बिना अपवाद के व्यवहृत नहीं है।
सभी उत्सर्ग अपवाद से संवलित हैं। इन नियमों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि इनका निर्माण गण की अव्यवच्छित्ति के लिए हुआ है। जैन आचार्यों का यह मुख्य उद्देश्य रहा है कि कोई भी व्यक्ति निर्ग्रन्थ प्रवचन से विमुख न हो। यदि कोई मुनि स्खलना करता है तो उसको प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करे और स्खलनाजनित विषाद का निवारण कर उसे संयम में स्थिर करने का प्रयास करे। वह स्खलना को पलायन का बहाना न बनाए, इसका ध्यान रखे और उसको समझाए कि स्खलना होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है, स्खलना हो जाने पर संभल जाना। सुनने की कला
भाष्यकार ने भगवद्वचन और गुरुवचन को सुनने की सुन्दर विधि प्रतिपादित की है। वह इस प्रकार है
निद्दा-विकहापरिवज्जिएण, गुत्तिदिएण पंजलिणा। भत्ती बहुमाणेण य, उवउत्तेणं सुणेयव्वं ।। अभिकंखंतेण सुभासियाई वयणाई अत्थमहुराई।
विम्हियमुहेण हरिसागएण हरिसं जणंतेण॥ निद्रा और विकथा का परिवर्जन कर, गुसेन्द्रिय होकर, हाथ जोड़कर, भक्ति और बहुमानपूर्वक, उपयुक्त अर्थात् तल्लीन होकर सुनना चाहिए।
सुभाषित वचन, जो अर्थ मधुर हों उनकी अभिकांक्षा करता हुआ मुनि विस्मित मुख से हर्षागत होकर, गुरु में भी हर्षातिरेक पैदा करता हुआ उनकी वाणी सुने। दो विशिष्ट परंपराएं
मैं दो विशेष परंपराएं, जो भाष्यकाल तक प्रचलित थीं, उनकी ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा।
(१) साध्वियों को वस्त्र-याचना की अनुज्ञा नहीं। (२) मतनिर्ग्रन्थ के शव का स्वयं मनियों द्वारा परिष्ठापन।
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