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________________ ३७४ = बृहत्कल्पभाष्यम् सागारियस्स नीहडिया परेण अशूद्रान्नव्रत दंभ है वैसे ही इन श्रमणों का शय्यातरपिंडअपडिग्गाहिता, तम्हा दावए नो से कप्पइ परिहारव्रत दंभ मात्र है।) पडिग्गाहित्तए॥ ३६३८.दुविहे गेलन्नम्मी, णिमंतणे दव्वदुल्लभे असिवे। ओमोदरिय पओसे, भए य गहणं अणुण्णायं ।। (सूत्र २०) शय्यातर का पिंड सात कारणों से अनुज्ञात हैसागारियस्स नीहडिया परेण १. आगाढ़ या अनागाढ़ ग्लानत्व में। २. निमंत्रण। पडिग्गाहिया, तम्हा दावए एवं से कप्पइ ३. दुर्लभद्रव्य। ४. अशिव। ५. अवमौदर्य। ६. प्रद्वेष अथवा पडिग्गाहित्तए॥ राजद्विष्ट। ७. भय। ३६३९.निब्बंधनिमंतेंते, भणंति भन्जिं दलाहि जा एसा। (सूत्र २१) तं पुण अविगीतेसुं, गीया इतरं पि गेण्हंति॥ शय्यातर द्वारा हठपूर्वक निमंत्रित होने पर साधु कहते ३६३५.पढम-चउत्था पिंडो, हैं-यह भर्जिका (आहृतिका या निर्हतिका) हमें दो। यह बितिओ ततिओ य होति उ अपिंडो। अगीतार्थ मुनियों के लिए ली जाती है। गीतार्थ मुनि तो दूसरा पुरतो ते वि विवज्जे, सागारिकपिंड भी लेते हैं। __ भद्दग-पंतेहिं दोसेहिं॥ ३६४०.णेच्छंतमगीतं एतिणेव सुत्तेण पत्तियाति। सागारिक पिंड जो अन्यत्र ले जाया जाता है, उसे सच्छंदण ण भणिमो, फुड-वियडमिणं भणति सुत्तं। निर्हतिका कहते हैं। उसके चार विकल्प हैं यदि अगीतार्थ मुनि आहृतिका और निर्हृतिका को ग्रहण १. द्रव्यतः प्रतिगृहीत, भावतः नहीं। करना नहीं चाहते, उनको इसी सूत्र से विश्वास दिलाते हुए २. भावतः प्रतिगृहीत, द्रव्यतः नहीं। कहा जाता है-आर्य! हम स्वच्छंदरूप से कुछ नहीं कह रहे ३. द्रव्यः और भावतः प्रतिगृहीत। हैं, किन्तु प्रस्तुत सूत्र स्फुटरूप से स्पष्टाक्षरों में इस तथ्य को कह रहा है। ४. द्रव्यतः और भावतः प्रतिगृहीत नहीं। ३६४१.जो तं जगप्पदीवहिं पणीयं सव्वभावपण्णवणं। इनमें प्रथम और चतुर्थ भंग शय्यातरपिंड है, द्वितीय और ण कुणति सुतं पमाणं, ण सो पमाणं पवयणम्मि॥ तृतीय भंग शय्यातरपिंड नहीं होता। परन्तु इसे भी सागारिक जो कोई श्रमण जगत् के लिए प्रदीप स्वरूप तीर्थंकरों के देखते नहीं लेना चाहिए क्योंकि इसमें भद्रक और प्रान्त द्वारा प्रणीत तथा समस्त भाव के प्रज्ञापक श्रुत को प्रमाण दोष होते हैं। रूप में नहीं मानता, वह मुनि प्रवचन अर्थात् धर्मसंघ में ३६३६.केणावि अभिप्पाएण दिज्जमाणं पिणेच्छिउं पुब्दि।। प्रमाण नहीं होता। अम्हे ओभावंता, पुरओ च्चि णे पडिच्छंति॥ ३६४२.जस्सेव पभावुम्मिल्लिताई तं चेव हयकतग्घाई। जो प्रान्त शय्यातर है वह यह सोचता है-पहले इन कुमुदाई अप्पसंभावियाई चंदं उवहसंति॥ श्रमणों ने हमारे द्वारा दिया जाने वाला पिंड किसी भी जिस चंद्रमा के प्रभाव से कुमुद खिलते हैं, वे कृतघ्नता अभिप्राय से नहीं लिया और अब ये हमारा तिरस्कार करते के कारण 'हम ही शोभायमान हैं।' इस आत्मश्लाघा से हुए हमारे सामने वही द्रव्य ले रहे हैं। प्रेरित होकर चन्द्रमा का उपहास करते हैं। इसी प्रकार ३६३७.किं तं न होति अम्हं, खेत्तरियं व किं विसमदोस।। आर्यो! जिस श्रुत के प्रभाव से तुम उबुद्ध हुए हो उसी को सुव्वत्त सोत्तिगादिव, चरेंति जतिणो वि डंभेणं। अप्रमाण मानना कृतघ्नता है। वे सोचते हैं क्या यह द्रव्य हमारा नहीं है? क्या क्षेत्रान्तरित विष दोष के लिए नहीं होता? ये मुनि होकर भी सागारियस्स अंसियाओ अविभत्ताओ व्यक्तरूप से ब्राह्मणों की भांति दंभ से आचरण करते हैं। अव्वोच्छिन्नाओ अव्वोगडाओ अनिज्जूढाओ, (जैसे ब्राह्मण शूद्रों के घर भोजन नहीं करते परन्तु वहां से तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए॥ तंदुल आदि ग्रहण कर लेते हैं। जैसे उन ब्राह्मणों का (सूत्र २२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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