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३४८
कृपा से मैं संसार सागर से तर जाऊंगा में और भी धान्य की प्राप्ति कर लूंगा।
उवस्सए वियड पदं
उवस्सयस्स
वगडाए
अंतो सुरावियडकुंभे वा सोवीरयवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निम्गंधाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए । हुरत्या य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥
(सूत्र ४)
३४०२. पगयं उवस्सएहिं, वाघाया तेसि होंति अन्नोन्ना । साहारण पत्तेगा, जा पिंडो एस संबंधो ॥ यहां उपाश्रय का अधिकार चल रहा है। उन उपाश्रयों के व्याघात अर्थात् दोष अन्योन्य- अपरापर होते हैं उनमें जहां अल्पतर दोष हों वहां रहना चाहिए, इसकी सूचना देने के लिए साधारण सूत्र और प्रत्येक सूत्र का आरंभ किया जाता है। पिंडसूत्र (२१८) पर्यन्त इसका संबंध है। ३४०३. सालुच्छूहि व कीरति, विगडं भुत्त तिसितोदयं पिबति ।
आहारिमम्मि दोसा, जह तह पिज्जे वि जोगोऽयं ॥ शाली, इक्षु आदि से विकट - मद्य का निर्माण होता है । इसलिए धान्यसूत्र के पश्चात् विकटसूत्र का उपन्यास किया गया है। शालिकर आदि खाने के पश्चात् तृषा लगती है। प्यास लगने पर पानी पीया जाता है। अतः उदकसूत्र का न्यास है अथवा आहारिम-तिल आदि खाने से जो दोष होते हैं, वैसे ही मद्य आदि पीने से भी दोष होते हैं। अतः उनसे प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता ।
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३४०४. देसीभासाह कयं जा बहिया सा भवे हुरत्या उ बंधऽणुलोमेण कयं परिहारो होइ पुव्वं तु ॥ 'हुरत्था' शब्द देशीभाषा में बाह्य अर्थ में प्रतिबद्ध है। विवक्षित उपाश्रय के बहिर्वर्ती वगडा को 'हुरत्था' कहा जाता हैं। बन्धानुलोमता से परिहारपद से पूर्व छेदपद है।
१. वृत्तिकार ने यहां गाथा ३३४८ से ३३९२ की गाथाओं पर्यन्त ग्रहण करने की बात कही है। (बृ. पृ. ९५१)
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बृहत्कल्पभाष्यम्
३४०५. अहवण वारिज्जतो, निक्कारणओ व तिण्ह व परेणं । छेयं चिय आवज्जे छेयमओ पुव्यमाहंसु ॥ अथवा विकटयुक्त उपाश्रय में रहने की वर्जना करने पर भी यदि कोई निष्कारण ही तीन दिनरात से अधिक रहता है, तो छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए छेदपद पहले कहा गया है।
३४०६. पिट्ठेण सुरा होती, सोवीरं पिट्ठवज्जियं जाणे । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु ॥ जो मद्य व्रीही आदि के पिष्ट से तैयार होता है उसे सुरा कहते हैं। जो बिना पिष्ट के केवल द्राक्षा, खजूर आदि से तैयार होता है उसे सौवीर कहते हैं ये दोनों जिस उपाश्रय में हो, वहां रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त गीतार्थ के लिए है। प्रस्तुत सूत्र गीतार्थ विषयक है। ३४०७. अणुभूआ मज्जरसा णवरिं मुत्तृणिमेसि मज्जाणं ।
काहामि को उहल्लं, पासुत्तेसुं समारदो ॥ वहां रहने वाले किसी साधु के मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि मैंने मद्यरसों का अनुभव किया है, किन्तु इन मधरसों का मैंने कभी अनुभव नहीं किया, अतः मैं अपने कुतूहल को पूरा करूंगा। यह सोचकर जब अन्य मुनि सो गए तब उसने मद्यपान करना प्रारंभ कर दिया। ३४०८. इहरा कहासु सुणिमो, इमं खु तं काविसायणं मज्जं ।
पीते वि जायति सती, तज्जुसिताणं किमु अपीते ॥ इतने दिनों तक हम 'कापिशायन' नामक मद्य की बात कथाओं से सुनते थे। यह वही मद्य है। जिन्होंने गृहवास में यह मद्य पीया है, उनको भी इस मद्य को पीने पर स्मृति हो सकती है, बिना पीए नहीं।
३४०९. विगयम्मि कोउहल्ले, छट्टवयविराहण त्ति पडिगमणं ।
वेहाणस ओहाणे, गिलाणसेहेण वा दिट्ठो ॥ कुतूहल के मिट जाने पर अर्थात् इच्छा की पूर्ति हो जाने पर उस मुनि के मन में यह भावना जाग जाती है कि मैंने छठे व्रत की विराधना की है। यह सोचकर वह प्रतिगमन कर देता है, गृहवास में चला जाता है। अथवा फांसी लगा कर मर जाता है अथवा पलायन कर पार्श्वस्थ आदि हो जाता है। अथवा विकटपान करते हुए उस मुनि को ग्लान या शैक्ष देख लेता है।
३४१०, उड्डाहं व करिज्जा, विप्परिणामो व हुज्ज सेहस्स । गिण्हतेण व तेणं खंडिय विछे व भिन्ने वा ॥
२. साधारणसूत्र वह है जिसमें अनेक पद होते हैं, जैसे-विकटसूत्र, उदकसूत्र, पिंडसूत्र आदि । प्रत्येक सूत्र वह है जिसमें एक ही पद होता है, जैसे-प्रदीपसूत्र, ज्योतिःसूत्र आदि ।
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