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सिंह और वृषभ के उपकारी होते हैं, तीनों का सहयोग करते हैं।
२९०५. जो सो उवगरणगणो, पविसंताणं अणागयं भणिओ । सहाणे सहाणे, तस्सुवओोगो इ कमसो ॥ अध्वनिर्गत मार्ग में प्रविष्ट मुनि को उपकरणसमूह लेना चाहिए यह जो कथन है, उसके अनुसार उन उन उपकरणों का अपने- अपने प्रयोजनीय स्थान पर क्रमशः उपयोग करना चाहिए।
२९०६. असई व गम्ममाणे, पडिसत्ये तेण सुन्नगामे वा ।
रुक्खाईण पलोयण, असई नंदी दुविह दव्वे || यदि मार्ग-निर्गत मुनि को भक्तपान की प्राप्ति न हो तो प्रतिसार्थ या स्तेनपल्ली या शून्यग्राम में उसकी एषणा करनी चाहिए | प्रलंब आदि के निमित्त वृक्षों का अवलोकन करना चाहिए। यदि सर्वथा अप्राप्ति हो तो दो प्रकार के द्रव्यों परीत और अनन्त में से जिस द्रव्य से नंदी तप-संयम की वृद्धि होती हो वैसे करे ।
२९.०७. भत्ते व पाणेण व निमंतऽणुग्गए व अत्यमिए ।
आइच्चो उदिय त्ति य, गहणं गीयत्थसंविग्गे ॥ अध्वनिर्गत मुनियों को यदि कोई सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के पश्चात् भक्तपान के लिए निमंत्रण दे तो गीतार्थ मुनि उसे ग्रहण कर ले सार्थ के पड़ाव पर पहुंच कर सभी मुनियों को सुनाते हुए यह कहे आदित्य उदित है, यह मानकर हमने भक्तपान ग्रहण किया है। इस प्रकार की यतना गीतार्थ, संविग्न मुनि करते हैं।
२९.०८. गीयत्थम्हणणं, सामाए गिण्हए भवे गीओ। संविग्गग्गहणेणं, तं गेण्हंतो वि संविग्गो ॥ गीतार्थ का ग्रहण इसलिए किया गया है कि गीतार्थ मुनि ही रात्री में भक्तपान लेता है, अगीतार्थ नहीं। संविग्न का ग्रहण इसलिए है कि रात्रीभक्त लेता हुआ, करता हुआ संविग्न ही है, मोक्षाभिलाषी ही है। २९०९. बेइंदियमाईणं, संथरणे चउलहू उ सविसेसा । ते चैव असंघरणे, विविरीय सभाव साहारे ॥ स्तेनपल्ली में भक्तपान के लिए जाने पर वहां तो केवल मांस ही मिल सकता है। इतरभक्तपान से निर्वाह होता हो तो द्वीन्द्रिय आदि का मांस लेने पर तप और काल से विशेषित चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है यदि उससे संस्तरण - निर्वाह न हो तो उनसे विपरीत उत्क्रम से त्रीन्द्रिय आदि का मांस लेने पर भी चतुर्लघु का ही प्रायश्चित्त है । ( द्वीन्द्रिय का मांस-बल अधिक इन्द्रिय वाले प्राणियों के मांसबल से
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बृहत्कल्पभाष्यम्
अल्पतरबल वाला होता है) अतः मुनि स्वभावतः जो साधारण है, उसे ही वे ग्रहण करते हैं।
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२९१०. जत्थ विसेसं जाणंति तत्थ लिंगेण चउलहू पिसिए । अन्नाएण उ महणं, सत्यम्मि वि होह एसेव ॥ जिस गांव में लोग विशेषरूप से यह जानते हों कि 'श्रमण मांस नहीं खाते', वहां यदि स्वलिंग से मांस ग्रहण हो जाता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है अतः अज्ञात रहकर परलिंग से उसे ग्रहण करे। साथ में भी मांस ग्रहण करने में भी यही विधि है।
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२९११. अछाणासंघरणे, सुन्ने दव्वम्मि कप्पई गहणं । लहुओ लहुया गुरुगा, जहन्नए मज्झिमुक्कोसे ॥ अध्वगत मुनि यदि प्राप्त से निर्वाह नहीं कर पाते तो वे शून्यग्राम - भय से उजड़े हुए गांव में द्रव्य अर्थात् जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ले सकते हैं। यदि संस्तरण होने पर भी लेते हैं तो जघन्य द्रव्य ग्रहण में मासलघु, मध्यम में चतुर्लघु और उत्कृष्ट में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। २९१२. उक्कोसं विगईओ, मज्झिमगं होइ कूरमाईणि ।
दोसीणाइ जहन्नं, गिण्हंते आयरियमादी || उत्कृष्ट द्रव्य है- घृत, दूध आदि विकृतियां, मध्यम द्रव्य है - कूर, कुसण आदि तथा जघन्य द्रव्य है-वासी चावल आदि । इनको ग्रहण करने पर आचार्य आदि के आज्ञाभंग का दोष होता है।
२९१३. अद्धाणे संथरणे, सुन्ने गामम्मि जो उ गिण्हेज्जा ।
छेदादी आरोवण, नायव्वा जाव मासलहू ॥ मार्ग में संस्तरण होने पर भी जो शून्यग्राम से विकृति आदि ग्रहण करता है उसके छेद से प्रारंभ कर मासलघु यावत् आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। २९१४. छेदो छम्गुरु छल्लहु,
चउगुरु चउलहु य गुरु लहू मासो । आयरिय वसभ भिक्खु,
उक्कोसे मज्झिम जहने । उत्कृष्ट द्रव्य-अन्तर्दृष्ट लेने पर छेद, अदृष्ट लेने पर षड्गुरु, बहिर्दृष्ट लेने पर षड्गुरु और अदृष्ट लेने पर षड्लघु । मध्यम द्रव्य-अन्तर्दृष्ट षड्गुरु, अदृष्ट षड्लघु, बहिर्दृष्ट - षड्लघु, अदृष्ट चतुर्गुरु । जघन्य द्रव्य-अन्तर्दृष्ट षड्लघु, अदृष्ट चतुर्गुरु, बहिर्वृष्ट चतुर्गुरु, अदृष्ट चतुर्लघु । यह आचार्य से संबंधित द्रव्यों का प्रायश्चित्त विधान है। इसी प्रकार वृषभ और भिक्षु से संबंधित, कुछ अन्तर से, ऐसा ही प्रायश्चित है इसलिए संस्तरण होने पर नहीं लेना चाहिए।
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