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पहला उद्देशक
२९५ उपाश्रय से निर्गत हो जाने तथा सार्थ को प्राप्त न करने तक भक्तपान का प्रतिषेध करने पर या उसका लाभ न होने स्वयं का शकुन और सार्थ को प्राप्त हो जाने के पश्चात् सार्थ पर गीतार्थ मुनि स्वयं रात्रीभक्तचतुर्भंगी की यतनापूर्वक के शकुन से जाएं।
प्रतिसेवना करे। यदि मुनि गीतार्थमिश्र हों तो सार्थ में स्थविरा २८९५.अप्पत्ताण निमित्तं, पत्ता सत्थम्मि तिन्नि परिसाओ। श्राविका हो तो उसके पास उस भोजन का निक्षेप कर देते
सुद्धे त्ति पत्थियाणं, अद्धाणे भिक्खपडिसेहो॥ हैं। फिर मृगतुल्य शिक्षार्थी मुनियों को भेजकर वह भक्तपान सार्थ को प्राप्त न होने तक स्वयं का निमित्त अर्थात् शकुन मंगा लेते हैं और कहते हैं यह भक्तपान स्थविरा के पास से होता है। सार्थ के साथ हो जाने पर सार्थ का शकुन काम लाया गया है। आता है। सार्थ को प्राप्त कर तीन परिषदें करते हैं-सिंहपर्षद्, २९००.कुओ एयं पल्लीओ, सड्ढा थेरि पडिसत्थिगाओ वा। वृषभपर्षद् और मृगपर्षद। सार्थ को शुद्ध समझ कर उसके नायम्मि य पन्नवणा, न हु असरीरो भवइ धम्मो॥ साथ प्रस्थान किया। मार्ग में भिक्षा का प्रतिषेध कर डाला। वृषभ मुनियों को यदि वे शिक्षार्थी शिष्य पूछते हैं कि यह (व्याख्या आगे)
भक्तपान कहां से लाए हैं? तब कहे-पल्ली से। अथवा २८९६.कडजोगि सीहपरिसा,
दानादिश्राद्धों ने दिया है, स्थविरा से या प्रतिसार्थिकों से प्रास गीयत्थ थिरा य वसभपरिसा उ।। हुआ है। इतने पर भी यदि उन शिष्यों को यथार्थ ज्ञात हो सुत्तकडमगीयत्था,
जाए तो यह प्रज्ञापना करनी चाहिए–'न हु असरीरो भवइ मिगपरिसा होइ नायव्वा॥ धम्मो'-'शरीर से विरहित धर्म नहीं होता', अतः सर्वप्रयत्न जो कृतयोगी-गीतार्थ हैं वे सिंहपर्षद्, जो गीतार्थ और से शरीर की रक्षा करनी चाहिए। स्थिर हैं वे वृषभपर्षद् और जो अगीतार्थ हैं, कृतसूत्र-सूत्र २९०१.पुरतो वच्चंति मिगा, मज्झे वसभा उ मग्गओ सीहा। पढ़ने वाले हैं वे मृगपर्षद् होते हैं।
पिट्ठओ वसभऽन्नेसिं, पडियाऽसहरक्खगा दोण्हं ।। २८९७.सिद्धत्थग पुप्फे वा, एवं वुत्तुं पि निच्छुभइ पंतो। मार्ग में जाते समय 'मृग' अगीतार्थ मुनि आगे, मध्य में
भत्तं वा पडिसेहइ, तिण्हऽणुसट्ठाइ तत्थ इमा। 'वृषभ'-समर्थ गीतार्थ और मार्गतः-पीछे 'सिंह'-गीतार्थ मुनियों ने सार्थवाह से पूछा-हम आपके साथ प्रस्थान मुनि चलें। अन्य आचार्यों के मत के अनुसार वृषभ पीछे करना चाहते हैं। क्या आप हमारा योगक्षेम वहन करेंगे? चलें, क्योंकि दोनों अर्थात् मृग-सिंह अर्थात् बाल-वृद्ध में जो सार्थवाह ने कहा-शिर पर डाले हुए सरसों के दाने और श्रान्त हो गए हैं या क्षुधा-पिपासा परीषह से पीड़ित हो गए चंपक पुष्प कोई पीड़ा नहीं करते वैसे ही आप भी हमारे लिए हैं, उनके रक्षक वृषभ होते हैं, अतः वे पीछे चलते हैं। कोई भार नहीं हैं। इस प्रकार कहने के पश्चात् भी कोई प्रान्त २९०२.पुरतो य पासतो पिट्ठतो य वसभा हवंति अद्धाणे। सार्थवाह अटवी के मध्य मुनियों को निष्काशित कर देता है
गणवइपासे वसभा, मिगमज्झे नियम वसभेगो॥ और भक्तपान का प्रतिषेध कर देता है, तब तीनों-सार्थ, अथवा मार्ग में चलते समय वृषभ आगे-पीछे तथा मध्य सार्थवाह तथा आयत्तिक (व्यवस्थापक) को अनुशिष्टि आदि में होते हैं। गणपति के पास नियमतः वृषभ होते हैं तथा मृग की यह यतना करनी चाहिए।
मुनियों के पास नियमतः एक वृषभ मुनि रहता है। २८९८.अणुसट्ठी धम्मकहा, विज्ज निमित्ते पभुत्तकरणं वा। २९०३.वसभा सीहेसु मिगेसु चेव थामावहारविजढा उ। परउत्थिगा व वसभा, सयं व थेरी व चउभंगो॥
जो जत्थ होइ असहू, तस्स तह उवग्गह कुणंति॥ अनुशिष्टि का अर्थ है-धर्मकथा। तीनों को विस्तार से धर्म, वृषभ मुनि अपने बल और वीर्य को छपाते नहीं। वे मग कर्म, पुण्य, पाप आदि की बात बतानी चाहिए। विद्या, मंत्र, तथा सिंह मुनियों में जो अक्षम हो जाता है उसका वे यथार्थ निमित्त के द्वारा उनको वश में करना चाहिए। जो मुनि बलवान् उपग्रह सहयोग करते हैं। हो उसे प्रभुत्व स्थापित करना चाहिए। सर्वथा भक्त-पान का २९०४.भत्ते पाणे विस्सामणे य उवगरण-देहवहणे य। प्रतिषेध करने पर वृषभ अन्यतीर्थिकों के वेष में भक्तपान का
थामावहारविजढा, तिन्नि वि उवगिण्हए वसभा।। उत्पादन करे अथवा स्वलिंग से रात्रीभक्त विषयक चतुभंगी से वे उनको भक्त-पान लाकर देते हैं। उनके परिश्रान्त हो प्रयत्न करे अथवा स्थविरा श्राविका से प्राप्त करे।
जाने पर विश्रामणा की व्यवस्था करते हैं। जो चल नहीं २८९९.पडिसेह अलंभे वा, गीयत्थेसु सयमेव चउभंगो। सकते उनको तथा उनके उपकरणों का वहन करते हैं। इस
थेरिसगासं तु मिए, पेसे तत्तो व आणीयं॥ प्रकार शक्ति का गोपन करने से विमुक्त वे वृषभ तीनों-मृग,
जा जर
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