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पहला उद्देशक
२९७ २९१५.विलओलए व जायइ, अहवा कडवालए अणुन्नवए। २९२०.नंदंति जेण तव-संजमेसु नेव य दर त्ति खिज्जति।
इयरेण व सत्थभया, अन्नभया वुट्टिते कोट्टे॥ जायंति न दीणा वा, नंदि अतो समयतो सन्ना।। विलओलग-लूटेरों से विकृति द्रव्य की याचना करता है अध्वगत मुनि जिस भोजन से तप-संयम में समाधि का अथवा कटपालक-वृद्ध और अजंगम गृहपालकों को अनुभव करते हैं वह नन्दी अथवा जिस द्रव्य के उपभोग से अनुज्ञापित कर, लेता है। परलिंग से ग्रहण करता है। कोट्ट- शीघ्र कृशता नहीं आती, वह है नन्दी अथवा जिसके योग से भिल्लदुर्ग में सार्थ के भय से अथवा अन्य भय से जो वसति मुनि दीन नहीं होते, वह है नन्दी। यह आगमिक परिभाषा है। उजड़ गई हो वहां जघन्य द्रव्य की याचना करता है, वहां यह २९२१.परिनिट्ठिय जीवजढं, जलयं थलयं अचित्तमियरं च। यतना है
परित्तेतरं च दुविहं, पाणगजयणं अतो वोच्छं। २९१६.उद्दृढसेस बाहिं, अंतो वी पंत गिण्हमट्टि। द्रव्य दो प्रकार के होते हैं-परिनिष्ठित (दूसरों के लिए
बहि अंत तओ दि8, एवं मज्झे तहुक्कोसे॥ अचित्त किया हुआ), जीव विप्रमुक्त (मुनियों के लिए अचित्त लुटेरों द्वारा लूटा हुआ तथा खाने के पश्चात् शेष रहे। किया हुआ अर्थात् आधाकर्म)। अथवा द्रव्य दो प्रकार के हुए भोज्य पदार्थ जो उनके द्वारा गांव के बाहर छोड़ दिए हों, हैं-जलज और स्थलज। अथवा अचित्त और इतर-सचित्त।' वह जघन्य अदृष्ट द्रव्य पहले ग्रहण करे। उसके अभाव में अथवा परीत्त और अनन्त। यह आहार विषयक यतना है। गांव के मध्य प्रान्त अदृष्ट द्रव्य, उसके अभाव में ग्राम के आगे पानक विषयक यतना कहूंगा। बाहर दृष्ट, फिर ग्राम के मध्य दृष्ट ग्रहण करे। उसके २९२२.तुवरे फले अ पत्ते, रुक्ख-सिला-तुप्प-महणाईसु। अभाव में मध्यम द्रव्य तथा उत्कृष्टद्रव्य का भी इसी पासंदणे पवाए, आयवतत्ते वहे अवहे॥ चारणिका के आधार पर ग्रहण करे।
अध्वगत मुनि को यदि कांजिक आदि प्रासुक पानक प्राप्त २९१७.तुल्लम्मि अदत्तम्मी, तं गिण्हसु जेण आवई तरसि। न हो तो निम्न पानक-एक के अभाव में दूसरा और दूसरे के
तुल्लो तत्थ अवाओ, तुच्छबलं वज्जए तेणं॥ अभाव में तीसरा-इस क्रम से ले सकता है। सभी प्रकार के द्रव्यों में अदत्तदोष तुल्य होने पर जिससे (१) तुवर फल-हरीतकी आदि तथा तुवरपत्र-पलाशपत्र असंस्तरण की आपदा दूर हो सके वह द्रव्य ग्रहण करे,
आदि से परिणामित पानक। क्योंकि वहां संयम और आत्मविराधना रूप अपाय तुल्य है, (२) वृक्ष के कोटर में कटुक फल या पत्र से परिणामित। इसलिए तुच्छबल वाले आहार का वर्जन करे।
(३) सिलाजित से भावित। २९१८.फासुग जोणिपरित्ते, एगट्टि अबद्ध भिन्न भिन्ने य। (४) तुप्प-मृत कलेवर, वशा, घृत से भावित।
बद्धट्ठिए वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए॥ (५) मर्दन-हाथी आदि से आक्रांत। प्रासुक परीत्तयोनिक, एकास्थिक, अबद्धास्थिक, भिन्न- (६) प्रस्यंदन-निर्झर का पानक। विदारित अभिन्न-अविदारित। इसी प्रकार बद्धास्थिक तथा (७) प्रपातोदक। बहुबीज में भी भिन्न-भिन्न भंग होते हैं। वृत्ति में इन सबके ३२ (८) आतप से तप्त। भंग बतलाए हैं। यह वृक्ष के नीचे पड़े प्रलंब के विषय में है। (९) अवहमान-जो बहता नहीं है। २९१९.एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए। (१०) वहमान।
साहारणं सभावा, आदीए बहुगुणं जं च॥ ये पानक क्रमशः लिए जा सकते हैं। इसी प्रकार वृक्ष के ऊपर प्रलंब आदि एकास्थिकपद तथा २९२३.जड्डे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयर मिगे य। बहुबीजपद के साथ भी बत्तीस भंग होते हैं। इनमें जो
उप्परिवाडी गहणे, चाउम्मासा भवे लहुगा। स्वभावतः साधारण द्रव्य है, शरीरोपष्टंभकारक है, वह इनके द्वारा आक्रांत पानक (पानी) लिया जा सकता हैग्रहण करे। वही बहुगुण-बहुत उपकारी हो सकता है। हाथी, गेंडा, महिष, गाय, गवय, शूकर, मृग। जो क्रम का १. विलओलग त्ति देशीपदत्वाद् लुण्टाकाः।
५. (क) अचित्तं ति जं नावि परट्ठाए अचित्तीभूयं, नावि संजयटाए, २. कोट्ट-अटवी में भिल्ल, पुलिन्द्र आदि चतुर्वर्णजनपदमिश्र भिल्लदुर्ग।
केवलं आयुक्खएण अचित्तं ति॥ चूर्णि ३. उहूढ-देशीवचनत्वात् मुषितं।
(ख) तीन शब्द हैं-परिनिहित, जीवविप्रमुक्त और अचित्त। तीनों के ४. चूर्णि-परिनिट्ठियं ति जं परकडमचित्तं, जीवजढं ति आहाकम्म।
अर्थ भिन्न हैं।
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