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मुनि दुलहराजजी श्रमिकवृत्ति के मुनि
हैं। वे मुनि बनकर मेरे पास आए। तब से
लेकर अब तक सतत उनकी श्रमनिष्ठा को
अखंडरूप में देख रहा हूं। यह सौभाग्य की
बात है कि उन्होंने श्रम की साधना में कभी
थकान का अनुभव नहीं किया। आचार्य तुलसी ने आगम-संपादन के भगीरथ कार्य
को हाथ में लिया और उसके संचालन का
दायित्व मुझे दिया। उस दायित्व की अनुभूति
में मुनि दुलहराजजी अनन्य सहयोगी बने रहे। आगम-संपादन के कार्य में वे पहले दिन
से संलग्न रहे और आज भी इस कार्य में
संलग्न हैं। उनकी श्रमनिष्ठा और संलग्नता
ने ही उन्हें आगम-मनीषी के अलंकरण से
अलंकृत किया है।
इस संपादन कार्य से पूर्व वे
व्यवहारभाष्य का अनुवाद और संपादन भी
कर चुके हैं। वह भाष्य भी साढ़े चार हजार से
अधिक गाथाओं का विशाल ग्रंथ है। यदि मन
की विशालता हो तो सागर की विशालता को
भी मापा जा सकता है। मेरी दृष्टि में ये भाष्य
ग्रंथ सागर की उपमा से उपमित किए जा
सकते हैं। इनको नापने का प्रयत्न निष्ठा,
साहस और दत्तचित्तता का कार्य है। मुनि
दुलहराजजी इस कसौटी में सफल हुए हैं।
उनका वर्तमान आगम का वर्तमान है। उनका
भविष्य भी आगमका भविष्य बना रहे।
आचार्य महाप्रज्ञ
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