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________________ = २९३ पहला उद्देशक = अथवा जो उनको सहन करने में अक्षम हो अथवा युगल- २८८०.सगुरु कुल सदेसे वा, नाणे गहिए सई य सामत्थे। बाल और वृद्ध मुनि असहिष्णु हो गए हों या काल वच्चइ उ अन्नदेसे, दंसणजुत्ताइअत्थो वा।। अवमौदर्य का हो-इन सबमें चारों भंगों का आसेवन किया अपने गुरु के पास जो ज्ञान-श्रुत विषयक ज्ञान था वह जा सकता है। ग्रहण कर लिया परंतु श्रुत के ग्रहण में और सामर्थ्य है तो २८७६.एमेव उत्तिमद्वे, चंदगवेज्झसरिसे भवे भंगा। वह अपने देश में, स्वकुल में वह श्रुत ज्ञान प्राप्त करे। उसके उभयपगासो पढमो, आदी अंते य सव्वतमो॥ अभाव में परकुल में जाकर भी ग्रहण करे। स्वदेश में यदि चन्द्रकवेध (आठ चक्रों के बीच की पुत्तलिका के दांई ऐसे बहुश्रुत आचार्य न हों तो अन्य देश में जाकर वह श्रुत आंख को बींधने के) सदृश अनशन करने वाले मुनि के प्राप्त करे। तथा दर्शनविशोधिकारक ग्रंथों (गोविन्दनियुक्ति कदाचिद् असमाधि उत्पन्न हो जाए तो चारों भंग विहित हैं। आदि) के प्रयोजन से प्रमाणशास्त्र में निपुण आचार्यों के पास इनमें प्रथम भंग आदि-अंत-उभयतः प्रकाशवान् है, द्वितीय वाचना ले। भंग आदि में प्रकाशवान् अन्त में अंधकारमय, तृतीय भंग २८८१.पडिकुट्ट देस कारण गया उ तदुवरमि निति चरणट्ठा। आदि में अंधकारमय, अन्त में प्रकाशवान् और चतुर्थ भंग असिवाई व भविस्सइ, भूए व वयंति परदेसं॥ सर्व अधंकारमय होता है-रात्री में ग्रहण और रात्री में ही मुनियों के विहार के लिए सिन्धुदेश आदि प्रतिकुष्ट हैं। परिभोग। वहां अशिव आदि कारणों से गए हुए मुनि उन कारणों के २८७७.अद्धाणम्मि व होज्जा, भंगा चउरो उतं न कप्पइ उ।। उपरत हो जाने पर चारित्र की पालना के लिए वहां से आ दुविहा उ होति उ दरा, पोट्टे तह धन्नभाणे य॥ जाएं। अथवा वहां रहते हुए निमित्त बल से जान लिया कि . अध्वनिर्गत मुनियों के लिए चारों भंग होते हैं। परंतु जो यहां अशिव आदि होंगे, अथवा हुआ है, तो वे परदेश में मुनि ऊर्ध्वदर में अध्वगमन करते हैं, उनके लिए नहीं परिखजन कर दें। कल्पता। दर दो प्रकार के हैं-पोट्टदर और धान्यभाजनदर। २८८२.चम्माइलोहगहणं, नंदीभाणे य धम्मकरए य। (पोट्ट का अर्थ है उदर, तद्प दर होता है-पोट्टदर, परउत्थियउवकरणे, गुलियाओ खोलमाईणि॥ धान्यभाजन-कट, पल्य आदि, वे ही हैं दर-धान्यभाजनदर। चर्म आदि तथा लोह, नन्दीभाजन, धर्मकरक, परतीर्थिक वे दर ऊर्ध्व अर्थात् जहां भरे जाते हैं, वह है ऊर्ध्वदर।) के उपकरण, गुलिका तथा खोल (गोरस से भावित वस्त्र)२८७८.उद्दहरे सुभिक्खे, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेण। अर्ध्वनिर्गत मुनि ये उपकरण साथ में ले। (विस्तार आगे)। लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवज्जई जत्थ॥ २८८३.तलिय पुडग वज्झे या, कोसग कत्ती य सिक्कए काए। ऊर्ध्वदर और सुभिक्ष के चार भंग होते हैं पिप्पलग सूइ आरिय, नक्खच्चणि सत्थकोसे य॥ (१) ऊर्ध्वदर तथा सुभिक्ष। तलिका (पदत्राण), पुटक-खल्लक, वर्ध, कोशक(२) ऊर्ध्वदर असुभिक्ष। अंगुलिवाण, कृत्ति-चर्म, सिक्कक, कापोतिका, पिप्पलक, (३) सुभिक्ष न ऊर्ध्वदर। सूची, आरिका, नखार्चनी-नाखून काटने का ओजार तथा (४) न ऊर्ध्वदर और न सुभिक्ष। शस्त्रकोश-ये साथ में ले। इनमें दूसरे और चौथे भंग में अध्वगमन करना चाहिए। २८८४.तलियाउ रत्तिगमणे, कंटुप्पहतेण सावए असहू। पहले और तीसरे भंग में दर्प से कोई अध्वगमन करता है तो पुडगा विवच्चि सीए, वज्झो पुण छिन्नसंधट्ठा। शुद्धपद में भी चतुर्लधु का प्रायश्चित्त है तथा संयमविराधना रात्री में गमन करने पर पैरों में कांटे आदि न चुभे आदि होने पर तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। इसलिए तलिका उपयोगी है। चोर और श्वापद से बचने के २८७९.नाणट्ठ दंसणट्ठा, चरितट्ठा एवमाइ गंतव्वं । लिए (वेग से चलने या भागने के लिए) तथा सुकुमारपाद उवगरणपुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं॥ होने के कारण बिना क्रमणिका के चलने में असहिष्णु होने के कारण तलिका बांधी जाती है। शीत में पैरों के फट है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गमन जाने पर (बवाई के कारण) पुटक अर्थात् खल्लक पहने करने वाले जाने वाले तलिकादि उपकरण लेकर जाएं तथा जाते हैं। त्रुटित तलिकाओं को सांधने के लिए वर्ध पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाए। प्रयोजनीय होता है। १. स्थूलभद्र के लघु भ्राता श्रीयक की भांति (वृ. पृ.८१५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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