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फिट ।
==बृहत्कल्पभाष्यम् हैं। अथवा गच्छ ग्रहण करने पर गच्छवासियों का ग्रहण भिक्षु आदि कहते हैं-देखो, इन मुनियों का अनाचार। जानना चाहिए, जिनकल्पिकों का नहीं।
रात्री में भोजन कर किसी को नहीं कहते। इस प्रकार भिक्षु २८६६.बिइयादेसे भिक्खू, भणंति दुट्ठ भे कयं ति वोलेंति। वृषभों को और वृषभ आचार्य को तथा आचार्य एक-एक को
छल्लहु वसभे छग्गुरु, छेदो मूलाइ जा चरिमं॥ कहने पर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती जाती है। द्वितीयादेश का तात्पर्य है-द्वितीय नौ संस्थित प्रायश्चित्त २८७१.को दोसो को दोसो, त्ति भणते लग्गई बिइयठाणं। का प्रकार। निशिभक्तसेवी मुनियों को जब भिक्षु कहते हैं
अहवा अभिक्खगहणे, अहवा वत्थुस्स अइयारो॥ 'आपने उचित कार्य नहीं किया।' यदि वे मुनि इस कथन को क्या दोष है? क्या दोष है? इस प्रकार कहने वाले उन स्वीकार नहीं करते हैं तो उनको षडलघु का प्रायश्चित्त रात्रिभक्तप्रतिसेवियों को द्वितीय प्रायश्चित्तस्थान प्राप्त विहित है। वृषभ के वचन का अतिक्रमण करने पर षड्गुरु, होता है। अथवा पुनः पुनः रात्रिभक्त का आसेवन करने पर आचार्य के वचन का अतिक्रमण करने पर छेद, कुलस्थविर ___ अथवा वस्तु-आचार्य आदि के वचनों को अतिक्रमणरूप की बात का उल्लंघन करने पर मूल, गणस्थविर के वचन का अतिचार से प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। इसलिए चारों अतिक्रमण करने पर अनवस्थाप्य और संघस्थविर की बात न प्रकार के रात्रीभक्त का आसेवन नहीं कल्पता। कारण में वह मानने पर चरम अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। कल्पता है। २८६७.तइयादेसे भोत्तूण आगया नेव कस्सइ कहिंति। २८७२.बिइयपयं गेलन्ने, पढमे बिइए य अणहियासम्मि।
तेसऽन्नतो व सोच्चा, खिसंतऽह भिक्खूणो ते उ॥ फिट्टइ चंदगवेज्झं, समाहिमरणं व अद्धाणे॥ तृतीय आदेश-रात्रीभक्त की प्रतिसेवना कर आए हुए मुनि अपवादपद में ग्लानत्व, पहले तथा दूसरे परीषह को न किसी को कुछ नहीं कहते। किन्तु भिक्षु उन मुनियों के सह सकने के कारण, चन्द्रकवेध नामक अनशन का निर्वाह न आलाप-संलाप सुनकर अथवा उन प्रतिसेवी मुनियों ने कर सकने के कारण, समाधिमरण के लिए तथा मार्ग मेंश्रावकों को कहा हो और उन श्रावकों से सुनकर भिक्षु उन इनमें रात्रीभक्त के चारों प्रकार की प्रतिसेवना की जा सकती मुनियों की खरंटना करते हैं, उनकी भर्त्सना करते हैं। यदि वे है। (विस्तार अगली गाथाओं में।) मुनि खरंटना का अतिक्रमण करते हैं, स्वीकार नहीं करते तो २८७३.पइदिणमलब्भमाणे, विसोहि समइच्छिउं पढम भंगो। निम्न प्रायश्चित्त का विधान है
दुल्लभ दिवसंते वा, अहि-सूलरुयाइसु बिइओ॥ २८६८.भिक्खुणो अतिक्कमंते,
२८७४.एमेव तइयभंगो, आइ तमो अंतए पगासो उ। - छल्लहुगा वसभे होति छग्गुरुगा। दुहओ वि अप्पगासो, एमेव य अंतिमो भंगो॥ गुरु-कुल-गण-संघाइक्कमे य
ग्लान के लिए प्रतिदिन प्रायोग्यद्रव्य की प्राप्ति न होने
__ छेदाइ जा चरिमं॥ पर विशोधिकोटि के दोषों के आधार पर प्रतिदिन लाकर भिक्षुओं के कथन का अतिक्रमण करने पर षडलघु, दिया जा सकता है। यदि वह भी अतिक्रांत हो जाता है तो वृषभों के अतिक्रमण में षड्गुरु, गुरु के अतिक्रमण में छेद, प्रथम भंग अर्थात् 'रात्री में लाकर दिन में देना' का आसेवन कुलस्थविर के अतिक्रमण में मूल, गणस्थविर के अतिक्रमण । किया जा सकता है। ग्लान प्रायोग्य दुर्लभ द्रव्य प्राप्त कर, में अनवस्थाप्य और संघस्थविर के अतिक्रमण में पारांचिक स्थान पर आते-आते दिन अस्त हो जाए तो वह रात्री में प्रायश्चित्त है। (यह तीसरी नौ है।)
दिया जा सकता है। अथवा सायं सर्प ने डस दिया या २८६९.भिक्खू वसभाऽऽयरिए,
शूलरोग उत्पन्न हो गया तो रात्री में औषध आदि दी जा वयणं गच्छस्स कुल गणे संघे। सकती है। यह रात्रीभक्त का दूसरा विकल्प है। इसी प्रकार गुरुगादऽइक्कमंते,
तीसरा भंग होता है। इसमें आदि में अंधकार यानि रात्री जा सपद चउत्थ आदेसो॥ और अंत में प्रकाश यानि दिन। चतुर्थ भंग में आदि और चतुर्थ आदेश-भिक्षु के वचन का अतिक्रमण करने पर अंत में अप्रकाश- आगाढ़ कारण में यह विहित है। चतुर्गुरु, वृषभ के षड्गुरु, आचार्य के षड्गुरुक, गच्छस्थविर के छेद, कुलस्थविर के मूल, गणस्थविर के अनवस्थाप्य और
असहुस्स हवेज्ज अहव जुअलस्स। संघस्थविर के स्वपद अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त है।
कालम्मि दुरहियासे, २८७०.पेच्छह उ अणायारं, रत्तिं भुत्तुं न कस्सइ कहंति।
भंगचउक्केण गहणं तु॥ एवं एकेक्कनिवेयणेण वड्ढी उ पच्छित्ते॥ पहले और दूसरे परीषह में जो मुनि आकुल हो गया हो
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