________________
पीठिका
१२. जितपरिषद्-महानतम परिषद् में भी अक्षुब्ध। १३. जितनिद्र-नींद से अबाधित। १४. मध्यस्थ-पक्षपातशून्य। १५. देश-काल-भावज्ञ। १६. आसन्नलब्धप्रतिभ-शीघ्रउत्तरदाता। १७. आचारवान्-पांच प्रकार के आचार से युक्त। १८. सूत्र-अर्थ और तदुभय की विधि का ज्ञाता। १९. आहरण दृष्टांत, हेतु, उपनय तथा नय में निपुण। २०. ग्राहणाकुशल-प्रतिपादनशक्ति से युक्त। २१. ससमय-परसमयविद्-स्वसिद्धांत और परसिद्धांत
का ज्ञाता। २२. गंभीर। २३. दीप्तिमान-तेजस्वी। २४. शिव--अकोपन अथवा कल्याणकर। २५. सोम-शांतिदृष्टि वाला। २६. सैंकड़ों गुणों से युक्त। २७. युक्त उपयुक्त कथन करने वाला।
जो इन सभी विशेषताओं से युक्त होता है वह प्रवचन अर्थात द्वादशांगी के सार-अर्थ का कथन कर सकता है। २४५. गुणसुट्टियस्स वयणं, घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ।
गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो। जो मुनि गुणों में सुस्थित है उसका वचन घृतपरिसिक्त पावक की भांति शोभित होता है। गुणहीन का वचन शोभित नहीं होता जैसे तैलविहीन प्रदीप। २४६. जइ पवयणस्स सारो, अत्थो सो तेण कस्स कायव्यो।
एवंगुणन्निएणं, सव्वसुयस्साऽऽउ देसस्सा ॥ यदि प्रवचन का सार अर्थ है तो उपरोक्त गुणान्वित अनुयोगदाता को किस सूत्र का अर्थ कहना चाहिए? क्या समस्त श्रुत का अर्थ कहना चाहिए, अथवा उसके एक अंश का श्रुतस्कंध आदि का? २४७. को कल्लाणं निच्छइ, सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्यो।
कप्प-व्ववहाराण उ, पगयं सिस्साण थिज्जत्थं ।। कल्याण कौन नहीं चाहता? ऐसे गुणान्वित आचार्य को समस्त श्रुत का अर्थ कहना चाहिए। अपवादबहुल कल्प और व्यवहार सूत्र का अनुयोग ऐसे आचार्य ही कर सकते हैं और उन्होंने शिष्यों के स्थिरीकरण के लिए यह किया है। २४८. एसुस्सग्गठियप्पा, जयणाणुन्नातो दरिसयंतो वि।
तासु न वट्टइ नूणं, निच्छयओ ता अकरणिज्जा। ऐसे गुणान्वित आचार्य द्वारा कल्प और व्यवहार का अनुयोग किए जाने पर शिष्य सोचते हैं ये स्वयं उत्सर्ग में स्थितात्मा हैं। इन दोनों सूत्रों में यतनापूर्वक प्रतिसेवना
= २७ अनुज्ञात है-यह प्रदर्शित करते हुए भी स्वयं उनमें प्रवर्तित नहीं होते, केवल उत्सर्ग का ही आचरण करते हैं। अतः यह निश्चयपूर्वक ज्ञात होता है कि प्रतिसेवना का समाचरण नहीं करना चाहिए। २४९. जो उत्तमेहिं पहओ, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं।
आयरियम्मि जयंते, तदणुचरा केण सीइज्जा। जो मार्ग उत्तम पुरुषों द्वारा क्षुण्ण है, वह शेष पुरुषों के लिए दुर्गम नहीं होता, सुगम हो जाता है। जो आचार्य सूत्रनीति से यतमान होते हैं, उनके अनुचर शिष्य क्यों खिन्न होंगे? २५०. अणुओगम्मि य पुच्छा, अंगाई कप्प छक्कनिक्खेवो।
सुय खंधे निक्खेवो, इक्केक्को चउव्विहो होइ॥ अनुयोग में अंग आदि की पृच्छा वक्तव्य है। उसके अनन्तर कल्प के छह निक्षेप तथा श्रुत और स्कंध-प्रत्येक के चार-चार निक्षेप कहने होते हैं। (यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे।) २५१. जइ कप्पादणुयोगो, किं सो अंगं उयाहु सुयखंधो।
अज्झयणं उद्देसो, पडिवक्खंगादिणो बहवो।। ___ यदि कल्प आदि का अनुयोग है तो पृच्छा होती है कि क्या वह अंग है ? अथवा श्रुतस्कंध है ? अथवा अध्ययन है ? अथवा उद्देश है? इन अंगों आदि के प्रतिपक्ष बहुअंग आदि हैं। इसकी भावना यह है क्या कल्प या व्यवहार अंग है या बहुअंग? श्रुतस्कंध है या बहुश्रुतस्कंध? अध्ययन है या बहु अध्ययन? उद्देश है या बहु उद्देश ? तब आचार्य कहते हैं-इन अंगों के प्रतिपक्ष बहुत सारे अंग आदि हैं। २५२. सुयखंधो अज्झयणा, उद्देसा चेव हुंति निक्खिप्पा।
सेसाणं पडिसेहो, पंचण्ह वि अंगमाईणं ।। आचार्य कहते हैं-श्रुतस्कंध, अध्ययन तथा उद्देश-ये तीन पक्ष निक्षेप्य होते हैं अर्थात् स्थाप्य और आदरणीय होते हैं। अंग आदि शेष पांचों का प्रतिषेध है, जैसे कल्प और व्यवहार न अंग है और बहुअंग हैं, श्रुतस्कंध है, न बहुश्रुतस्कंध हैं, अध्ययन है, न बहुअध्ययन हैं, न उद्देश है, बहुउद्देश हैं। २५३. तम्हा उ निक्खिविस्सं, कप्प-व्ववहारमो सुयक्खधं | __अज्झयणं उद्देस, निक्खिवियव्वं तु जं जत्थ॥
इसलिए मैं कल्प का निक्षेप करूंगा, व्यवहार का निक्षेप करूंगा, श्रुतस्कंध, अध्ययन और उद्देश-इन सबका निक्षेप करूंगा। जहां जो निक्षेसव्य है वहां नाम आदि चार प्रकार अथवा छह प्रकार का निक्षेप कहूंगा। (नामकल्प के छह प्रकार देखें गाथा २७३)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org