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=बृहत्कल्पभाष्यम्
२३४. अणिउत्तो अणिउत्ता, अणिउत्तो चव होइ उ निउत्ता। नहीं होती। अथवा आचार्य अनुयोग का स्मरण करते हुए
नि (ने)उत्तो अणिउत्ता, उ निउत्तो चेव उ निउत्ता॥ अथवा अनुयोग नष्ट न हो जाए इसलिए बार-बार उसका २३५. निउत्ता अनिउत्ताणं, पवत्तई अहव ते वि उ निउत्ता। गुणन (चितारना) करते हैं, तब अनायास अनुयोग की प्रवृत्ति
दव्वम्मि होइ गोणी, भावम्मि जिणादयो हुंति॥ हो जाती है। प्रवृत्ति के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। द्रव्यतः में २३९. सागारियमप्पाहण, सुवन्न सुयसिस्स खंतलक्खेण। गाय का दृष्टांत और भावतः में जिन आदि का दृष्टांत है।
कहणा सिस्सागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च॥ गाय और दोहक विषयक चतुर्भंगी
शय्यातर को संदेश कहकर स्वर्णभूमी में अपने शिष्य के १. दोहक अनियुक्त, गाय भी अनियुक्त।
शिष्य सागर के पास वृद्ध मुनि का व्याज से जाना। शिष्यों २. दोहक अनियुक्त, गाय नियुक्त।
के पूछने पर शय्यातर का कहना। शिष्यों का स्वर्णभूमी में ३. दोहक नियुक्त, गाय अनियुक्त।
जाना। गर्वोन्मत्त सागर के लिए धूलीपुंज की उपमा।' ४. दोहक नियुक्त, गाय भी नियुक्त।
२४०. निउत्तो उभउकालं, भयवं कहणाएँ बद्धमाणो उ। इसी प्रकार आचार्य-शिष्य से संबंधित भी चतुर्भंगी होती गोयममाई वि सया, सोयव्वे हंति उ निउत्ता।। है। यह चतुर्भंगी अनुयोग विषयक है। तीसरे भंग के अनुसार नियुक्त आचार्य-दोनों समय अनुयोग कहते हैं। नियुक्त आचार्य अनुयोग में नियुक्त हैं, किन्तु शिष्य अनियुक्त हैं। शिष्य दोनों समय अनुयोग सुनते हैं। अनुयोग कहने वालों का आचार्य उन अनियुक्त शिष्यों को भी अनुयोग में प्रवृत्त करता दृष्टांत है भगवान् वर्द्धमान और श्रोतव्य में दृष्टांत हैं गौतम है। अथवा द्वितीय भंग में नियुक्त शिष्य अनियुक्त आचार्य को आदि। भी अनुयोग में प्रवृत्त कर देते हैं।
२४१. देस-कुल-जाइ-रूवी, संघइणी धिइजुओ अणासंसी। (तीसरे और दूसरे विकल्प में अनुयोग की प्रवृत्ति होती अविकंथणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवक्को। है। प्रथम में सर्वथा नहीं होती और चतुर्थ भंग में वह अवश्य २४२. जियपरिसो जियनिहो, मज्झत्थो देस-काल-भावन्नू। होती है।
आसन्नलद्धपइभो,
नाणाविहदेसभासन्नू॥ २३६. अप्पण्हुया य गोणी, नेव य दुद्धा समुज्जओ दुर्छ। २४३. पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तऽत्थतदुभयविहन्नू।
खीरस्स कओ पसवो, जइ वि य सा खीरदा धेणू। आहरण-हेउ-उवणय-नयनिउणो गाहणाकुसलो।। २३७. बीए वि नत्थि खीरं, थेवं व हविज्ज एव तइए वि। २४४. ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो।
अत्थि चउत्थे खीरं, एसुवमा आयरिय-सीसे॥ गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेडं। २३८. अहवा अणिच्छमाणमवि किंचि उज्जोगिणो पवत्तंति। अनुयोगदाता के गुण
तइए सारिते वा, होज्ज पवित्ती गुणिते वा॥ १. देशयुत-आर्यदश में उत्पन्न। आर्यदेश की भाषाओं धेनु दूध देने वाली है, परंतु वह उस समय प्रश्नुत नहीं है ___ को जानने के कारण उसके पास अनेक शिष्य अध्ययन करने और दुहने वाला भी समुद्यत नहीं है तो दूध का प्रसव कैसे के लिए आते हैं। होगा? दूध कहां से मिलेगा? दूसरे भंग में 'दोहक अनियुक्त २. कुलयुत-विशिष्ट कुल में उत्पन्न होने के कारण वह है, गाय नियुक्त है' तो दूध प्राप्त नहीं होगा, अथवा गाय से स्वीकृत मार्ग का निर्वाहक होता है। टपकने वाली दूध की बूंदें ही प्राप्त होंगी। तीसरे भंग में ३. जातियुत-विनय आदि गुणों से संपन्न । 'दोहक नियुक्त है, गाय अनियुक्त है' इसमें भी दूध की प्राप्ति ४. रूपयुत-लोगों के लिए सत्करणीय। नहीं होगी। चौथे भंग में गाय और दोहक-दोनों नियुक्त हैं तो ५. संहननयुत-व्याख्या करने में नहीं थकता। दूध प्राप्त होगा।
६. धृतियुत-अतिगहन विषयों में भी भ्रांत नहीं होता। यह उपमा आचार्य और शिष्य से संबंधित अनुयोग के ७. अनाशंसी-आकांक्षा रहित। प्रसव के विषय में है।
८. अविकत्थन न अति न बहु भाषी। ___ अथवा अनुयोग की प्रवृत्ति में प्रवृत्त होने की इच्छा न होते ९. अमायी-माया से रहित। हुए भी, उद्योगी शिष्य प्रतिपृच्छा आदि के द्वारा आचार्य को १०. स्थिरपरिपाटी जिसमें अनुयोग की परिपाटियां उसमें प्रवृत्त कर देते हैं। तीसरे भंग में 'आचार्य नियुक्त हैं
स्थिर हैं। किन्तु शिष्य अनियुक्त हैं। उस स्थिति में अनुयोग की प्रवृत्ति ११. गृहीतवाक्य-उपादेय वचन। १. पूरे कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. १७।
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