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________________ - २८ बृहत्कल्पभाष्यम् २५४. आइल्लाणं दुण्ह वि, सट्ठाणं होइ नामनिप्फन्ने। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-परिकर्म तथा संवर्तन __ अज्झयणस्स उ ओहे, उद्देसस्सऽणुगमे भणिओ॥ (वस्तुनाश)। प्रथम दो कल्प और व्यवहार के यथाक्रम षट्क और २५९. जेण विसिस्सइ रुवं, भासा व कलासु वा वि कोसल्लं। चतुष्क निक्षेप का स्वस्थान है-नामनिष्पन्न निक्षेप। अध्ययन परिकम्मणा उ एसा, संवट्टण वत्थुनासो उ॥ का चार प्रकार का निक्षेप ओघनिष्पन्न निक्षेप में कथनीय है। जिस उपाय से रूप, भाषा, कला और कौशल में उद्देश का निक्षेप अनुगम अर्थात् उपोद्घात नियुक्ति के अनुगम विशिष्टता आपादित होती है वह है परिकर्म और संवर्तन में कहा जायेगा। है-वस्तुनाश (जैसे बने हुए स्वर्णकटक को तोड़ देना, पुरुष २५५. नामसुयं ठवणसुयं, दव्वसुयं चेव होइ भावसुयं। को मार डालना।) एमेव होइ खंधे, पन्नवणा तेसि पुव्वुत्ता॥ २६०. नावाए उवक्कमणं, हल-कुलियाईहिं वा वि खित्तस्स। श्रुत शब्द के चार निक्षेप हैं-नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, सम्मज्ज-भूमिकम्मे, पंथ-तलागाइएसुं तु॥ द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। इसी प्रकार स्कंध शब्द के भी चार नौका आदि से नदी पार करना, हल, कुलिक आदि से निक्षेप होते हैं। इनकी प्रज्ञापना पूर्व अर्थात् आवश्यक में कर खेत का उपक्रमण करना, गृह आदि का संमार्जन करना, दी गई है। मंदिर आदि का भूमिकर्म करना, मार्ग का शोधन, तालाब का २५६. चत्तारि दुवाराई, उवक्कम निक्खेव अणुगम नया य। उत्खनन आदि से परिकर्म करना यह सारा क्षेत्रोपक्रम है। काऊण परूवणयं, अणुगम-निज्जुत्ति सुत्तस्स॥ २६१. छायाए नालियाइ व, कालस्स उवक्कमो विउपसत्थो। कल्प के चार अनुयोगद्वार हैं-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम रिक्खाईचारेसु व, साव-विबोहेसु व दुमाणं ।। और नय। इनकी प्ररूपणा जैसे अनुयोगद्वार' सूत्र में की गई छाया से, नालिका-घटिका से काल का माप करना जो है, वैसे ही सूत्रानुगम तथा सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति अनुगम विद्वानों द्वारा प्रशंसित होता है-यह कालोपक्रम है। अथवा पर्यन्त करनी चाहिए। नक्षत्र, ग्रह आदि के चार-गति के परिज्ञान के आधार पर २५७. अद्दारगं अनगरं, एगद्दारे य होइ पलिमंथो। काल के शुभ-अशुभ को जानना, वृक्ष विशेष (शमी, इमली चउदारे तेण भवे, देस पएसे य छिंडीओ ॥ आदि) के स्वाप और विबोध (अविकास और विकास) के जिस नगर के द्वार नहीं होता, वह अनगर होता है। जिस आधार पर सूर्य के अस्त-उदय को जानना यह सारा नगर के केवल एक द्वार होता है, वह कुनगर है, क्योंकि वहां कालोपक्रम है। प्रवेश और निर्गमन में अनेक बाधाएं होती हैं। इसलिए नगर २६२. गणिगा मरुगीऽमच्चे, अपसत्थो भावुवक्कमो होइ। के चार द्वार होते हैं। वहां भी उनके देश और प्रदेश में अनेक आयरियस्स उ भावं, उवक्कमिज्जा अह पसत्थो॥ छिंडिकाएं-छोटे द्वार आदि होगी। अप्रशस्त भावोपक्रम के तीन उदाहरण हैं-गणिका, (इसी प्रकार जिस ग्रंथ का अनुयोगद्वार नहीं दिया जाता ब्राह्मणी और अमात्य। आचार्य के भाव के अनुसार वर्तन है वह एकांततः अगम्य होता है, वह अद्वार वाले नगर की करना, उनकी सेवा-सुश्रूषा करना प्रशस्त भावोपक्रम है। तरह है, एक अनुयोगद्वार कर लेने पर भी वह दुरधिगम २६३. जो जेण पगारेणं, तूसइ कार-विणयाणुवत्तीहिं। होगा, एक द्वार वाले नगर की भांति। इसीलिए अनुयोग के आराहणाइ मग्गो, से च्चिय अव्वाहओ तस्स। चार द्वार किए गए हैं।) आचार्य जिस प्रकार से तुष्ट होते हैं, वैसे कार-वैयावृत्त्य २५८. सच्चित्ताई तिविहो, उवक्कमो दवि सो भवे दुविहो। आदि करना तथा विनयानुवृत्ति का अनुपालन करना। आचार्य परिकम्मणम्मि एक्को, बिइओ संवट्टणाए उ॥ की आराधना का यह अव्याहत मार्ग है। (जैसे नगर के देश, प्रदेश में छिंडिकाएं होती हैं, वैसे ही २६४. आगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा। अनुयोग के अनेक अवान्तर भेद हैं। उपक्रम के दो भेद तह वि य सिं न विकूडे, विरहम्मि य कारणं पुच्छे।। है-लौकिक और शास्त्रीय। लौकिक के छह भेद हैं-नाम, वही शिष्य आचार्य की आराधना कर सकता है जो स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।) आचार्य के आकार और इंगित को जानने में कुशल होता है। द्रव्य उपक्रम के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। आचार्य यदि कहे-कौआ सफेद होता है, तो भी वह शिष्य १. अनुयोगद्वार का अर्थ है-अर्थ के उपाय।-अनुयोगस्य-अर्थस्य द्वाराणि-मुखानि उपाया इत्यर्थः। (वृ. पृ. ७८) २. कथाओं के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. १८.२०॥ आचाय जिर वही लि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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