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पीठिका -
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उसका प्रतिषेध न करे, उसको खंडित न करे। जब २६८. पज्जव पुव्वद्दिट्ठा, संघाया पज्जव-ऽक्खराणं च। आचार्य एकांत में हों, उनके पास जनता न हो, तब शिष्य मुत्तूण पज्जवा खलु, संघायाई उ संखिज्जा॥ नम्रतापूर्वक कारण पूले-भंते ! आपने कौए को सफेद क्यों कल्प के व्याख्यान में अनंत पर्यव हैं। उनको पहले बतलाया?
अर्थात् नंदी सूत्र में उद्दिष्ट कर दिया गया है।' संघात के २६५. भावे उवक्कम वा, छव्विहमणुपुब्विमाइ वण्णे। दो प्रकार हैं-पर्यवों के तथा अक्षरों के। पर्यव संघात अनंत
जत्थ समोयरइ इम, अज्झयणं तत्थ ओयारे॥ हैं। उनको छोड़कर, अक्षरों के संघात संख्येय हैं। भावोपक्रम (शास्त्रीय उपक्रम) के छह प्रकार जैसे-संख्येय अक्षर-संघात, संख्येय श्लोक, संख्येय वेष्टक हे--आनुपूर्वीभाव उपक्रम, नामभाव उपक्रम, प्रमाणभाव आदि। उपक्रम, वक्तव्यताभाव उपक्रम, अर्थाधिकारभाव उपक्रम तथा २६९. उस्सन्नं सव्वसुयं, ससमयवत्तव्वया समोयरइ। समवतारभाव उपक्रम। इनका वर्णन कर यह अध्ययन अहिगारो कप्पणाए, समोयारो जो जहिं एस॥ (कल्प) किस उपक्रम में समवतरित होता है, वहां उसका उत्सन्न-सर्वकाल सर्वश्रुत स्वसमय वक्तव्यता में समवतार करना चाहिए।
समवतरित होता है। अर्थाधिकार की दृष्टि से मूलगुण और २६६. दुण्ह अणाणुपुव्वी, न हवइ पुव्वाणुपुब्विओ पढम। उत्तरगुण में दोष लगाने वालों के प्रायश्चित्त स्वरूप यह
पच्छाणुपुब्वि बिइयं, जइ उ दसा तेण बारसमं ।। यथायोग्य (यथास्थान) समवतरित होता है। (आनुपूर्वी के तीन प्रकार हैं-पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी २७०. परपक्खं दूसित्ता, जम्हा उ सपक्खसाहणं कुणइ। तथा अनानुपूर्वी)
नो खलु अदूसियम्मी, परे सपक्खंजसा सिद्धी। कल्प और व्यवहार ये दो अध्ययन हैं। इनकी अनानुपूर्वी श्रुत परसमय वक्तव्यता में भी समवतरित होता है नहीं होती। पहले की पूर्वानुपूर्वी और दूसरे की पश्चादानुपूर्वी क्योंकि परपक्ष के दोष बताकर स्वपक्ष की सिद्धि की जाती होती है। कुछ आचार्य कहते हैं-कल्प, व्यवहार और दशा- है। परपक्ष को दूषित किए बिना स्वपक्ष की अञ्जसा-प्रधानएक श्रुतस्कंध है। यदि दशा को गिना जाए तो पूर्वानुपूर्वी से रूप से सिद्धि नहीं होती। प्रथम और पश्चानुपूर्वी से बारहवां है।
२७१. निक्खेवो होइ तिहा, ओहे नामे य सुत्तनिप्फन्ने। २६७. सव्वज्झयणा नामे, ओसन्नं मीसए अवतरंति। अज्झयणं अज्झीणं, आओ झवणा य तत्थोहे ।।
जीवगुण नाण आगम, उत्तरऽणंगे य काले य॥ २७२. इक्किक्कं तं चउहा, नामाईयं विभासिउं ताहे। नामभाव उपक्रम में भावों का निरूपण होता है। प्रायः भावे तत्थ उ चउसु वि, कप्पज्झयणं समोयरइ॥ सभी अध्ययन मिश्रक-क्षायोपशमिक भाव में समवतरित निक्षेप के तीन प्रकार हैं-ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न और होते हैं। अतः 'कल्प' भी क्षायोपशमिक नाम में अवतरित सूत्रालापकनिष्पन्न। ओघनिष्पन्न के चार प्रकार हैं-अध्ययन, होता है। यह प्रमाण के आधार पर जीवगुणप्रमाण में अक्षीण, आय और क्षपणा। इन चारों के नाम आदि के भेद से अवतरित होता है। जीव गुण के तीन भेद हैं-ज्ञान, दर्शन और चार-चार प्रकार हैं। कल्पाध्ययन इन चारों के अध्ययन चारित्र। यह अध्ययन ज्ञानगुण प्रमाण में आता है। यह प्रमाण विषयक भाव में समवतरित होता है। भी चार प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान। २७३. नामे छव्विह कप्पो, दव्वे वासि-परसादिएहिं तु। यह अध्ययन आगम के अंतर्गत आता है। आगम भी दो
खेत्ते काले जहुवक्कमम्मि भावे उ पंचविहो। प्रकार का है लौकिक और लोकोत्तर। यह अध्ययन नामनिष्पन्न निक्षेप में इसका 'कल्प' नाम है। यह छह लोकोत्तरिक में समाविष्ट होता है। लोकोत्तरिक आगम के दो प्रकार का है-नामकल्प, स्थापनाकल्प, द्रव्यकल्प, क्षेत्रप्रकार हैं-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट। यह अंगप्रविष्ट में कल्प, कालकल्प और भावकल्प। द्रव्यकल्प है-वासी, परशु आता है। उसके भी दो प्रकार हैं-कालिक और उत्कालिक। आदि। क्षेत्रकल्प है-क्षेत्रोपक्रम। कालकल्प है-कालोपक्रम। यह कालिक में आता है। नयप्रमाण में इसका समवतार नहीं भावकल्प पांच प्रकार का है। होता। कालिकश्रुत में नयों का समवतार नहीं होता। २७४. छव्विह सत्तविहे वा, दसविह वीसइविहे य बायाला। संख्याप्रमाण में कालिकश्रुत परिमाण संख्या में समवतरित जस्स उ नत्थि विभागो, सुव्वत्त जलंधकारो से। होता है।
भावकल्प के पांच प्रकार ये हैं-छह प्रकार का, सात १. नंदी : सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणियं पज्जवक्खरं निप्फज्जइ।
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