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बृहत्कल्पभाष्यम्
दिन और रात में उस ओर पीठ कर शौच क्रिया न करे। लक्षण वाले स्थंडिल का अभाव हो अथवा उसके होने पर भी दक्षिण दिशा में रात्री में निशाचर देव आते-जाते हैं। अतः इन स्थानों कारणों से व्याघात हो-वहां प्रत्यनीक बैठा हो। रात्री में उस ओर पीठ कर शौच क्रिया न करे। जिस ओर मार्ग में चोरों का भय हो, व्याल-सर्प आदि की संभावना हो, पवन चल रहा हो उसे ओर पीठ कर बैठने पर अशुभ गंध से किसी ने वहां खेत बना दिया हो, वहां पानी भर गया हो, नाक में अर्श आदि हो सकते हैं, इसलिए पवन की ओर भी वहां स्कंधावार आदि निविष्ट हो, स्त्री-नपुंसक वहां उपस्थित पीठ नहीं करनी चाहिए। शौच के समय सूर्य और गांव की हों। तो मुनि उस स्थंडिल की वर्जना करे। ओर पीठ करने से लोगों में अवर्णवाद होता है।
४६३. पढमासति वाघाए, पुरिसालोगम्मि होति जयणाए। ४५८. संसत्तग्गहणी पुण, छायाए निग्गयाएँ वोसिरइ। मत्तग अपमज्जण डगल कुरुअ तिविहे दुविहभेदो।
छायाऽसति उण्हम्मि वि, वोसिरिय मुहत्तगं चिट्ठ॥ प्रथम लक्षणवाले स्थंडिल के अभाव में अथवा वहां जिस मुनि की कुक्षि कृमियों से संसक्त है, वह मुनि वृक्ष व्याघात होने पर मुनि दूसरे प्रकार के स्थंडिल अर्थात आदि की छाया में उत्सर्ग क्रिया करे। वृक्ष की छाया के अनापात-संलोक में जाए। पुरुषों का संलोक हो, वहां जाए अभाव में मुनि अपने शरीर की छाया में व्युत्सर्ग करे और और आचमन आदि यतनापूर्वक करे। प्रत्येक मुनि पात्र लेकर 'मुहूर्त्तक' अर्थात् कुछ समय तक वहीं बैठा रहे। (इतने समय जाए और डगलकों से प्रमार्जन न करे और आचमन के में वे कृमि अपने स्वाभाविक योग से परिणत हो जाते हैं, पश्चात् कुरुकुच (मिट्टी से हाथ धोना) करे। 'त्रिविधे प्रत्येक अन्यथा महान् संताप होता है।)
द्विविधो भेदः' इसका तात्पर्य है कि परपक्ष तीन प्रकार का ४५९. उवगरणं वामगऊरुगम्मि मत्तो य दाहिणे हत्थे। है-पुरुष, स्त्री, नपुंसक। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं--
तत्थऽण्णत्थ व पुंसे, तिहिं आयमणं अदूरम्मि। शौचवादी, अशौचवादी अथवा श्रावक, अश्रावक। अथवा तीन मल का उत्सर्ग करता हुआ मुनि अपने उपकरणों को प्रकार स्थविर, मध्यम, तरुण अथवा प्राकृत, कौटुम्बिक, केसे धारण करे? वह उपकरण अर्थात् दंडक और रजोहरण दंडिक। ये पुरुषों के भेद हैं। इसी प्रकार स्त्री-नपुंसक के भी को वामऊरु-बांई जांघ पर स्थापित करे, मात्रक को दाहिने भेद ज्ञातव्य हैं। हाथ में तथा डगलकों को बाएं हाथ में रखे। संज्ञा से निवृत्त ४६४. तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच्च आवायं। होकर, निकट के अन्यत्र प्रदेश में पुतों को डगलकों से पूंछे, इत्थि-नपुंसालोए, परम्मुहो कुरुकुया सा य॥ फिर वहीं तीन चुल्लुक पानी से आचमन करे।
सामान्य पुरुषालोक वाले स्थंडिल के अभाव में ४६०. आलोगं पि य तिविहं, पुरिसि-त्थि-नपुंसकं च बोधव्वं। अशौचवादी पुरुषालोक वाले स्थंडिल में जाए। इसके भी
लहुगा पुरिसालोए, गुरुगा य नपुंस-इत्थीसु॥ अभाव में स्त्री-नपुंसकालोक वाले स्थंडिल में जाए। वहां वह आलोक भी तीन प्रकार का होता है-पुरुषालोक, स्त्री- पराङ्मुख बैठे और कुरुकुच आदि की पूर्ववत् यतना करे। आलोक, नपुंसकालोक। इनका प्रायश्चित्त इस प्रकार है- ४६५. तेण परं आवायं, पुरिसेयर-इत्थियाण तिरियाणं। पुरुषालोक चारलघुमास, स्वीआलोक और नपुंसकालोक तत्थ वि य परिहरेज्जा, दुगुंछिए दित्तऽदित्ते य॥ चार-चार गुरुमास।
उपरोक्त प्रकारों के स्थंडिलों के अभाव में मुनि तिर्यंच नर४६१. छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। मादा और नपुंसकों के आपात वाले स्थंडिल में जा सकता है।
संघट्टण परियावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं। उनमें भी जुगुप्सित, दृप्त और अदृप्स तिर्यंचों का वर्जन करें। छह कायों में से चार काय-पृथ्वी, अप, तेजो और वायु ४६६. तत्तो इत्थि-नपुंसा, तिविहा तत्थ वि असोयवाईणं। तथा परित्त वनस्पतिकाय का संघट्टन होने पर लघुमास, तहियं च सद्दकरणं, आउलगमणं कुरुकुया य॥ साहार-अनन्तवनस्पति काय के संघट्टन में गुरु, द्वीन्द्रिय अथवा स्त्री-नपुंसकों के आपात वाले स्थंडिल में जाए। वे आदि के संघट्टन में लघु और परितापन में गुरु और इनका स्त्री नपुंसक तीन प्रकार के होते हैं-प्राकृत, कौटुम्बिक और अतिपात होने पर मूल।'
दंडिक। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-शौचवादी, अशौचवादी। ४६२. पढमिल्लुगस्स असती, वाघातो वा इमेहिं ठाणेहि। इनमें से पहले अशाचवादी आपात वाले स्थंडिल में जाए।
पडिणीय तेण वाले, खेत्तुदग निविट्ठ थी अपुमं॥ वहां शब्द करते हुए, आकुल-व्याकुल होते हुए जाएं और प्रथम लक्षण वाले स्थंडिल अर्थात् अनापात-असंलोक कुरुकुच आदि करे। १.वृत्तिकार ने इस प्रायश्चित्त विषयक विस्तार से चर्चा की है और इनके निरंतर आठ दिन तक होने वाले व्याघात से प्रायश्चित्त की वृद्धि का भी उल्लेख किया है। (वृ. पृ. १३४,१३५)
तास
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