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पीठिका =
५१ ४६७. इत्थि-नपुंसावाते, जा उण जयणा उ मत्तगादीया। 'पात्रैषणा' को अप्राप्त अर्थात् अनधीत शिष्य को पात्र-लेप
पुरिसावाए जयणा, स च्चेव उ मत्तगादीया॥ लाने के लिए प्रेषित करने पर उसे चार गुरुक का स्त्री और नपुंसकापात वाले स्थंडिल विषयक मात्रक प्रायश्चित्त आता है। दो से गुरु अर्थात् तपोगुरुक और आदि की यतना जो कही है वही यतना मुरुषापात विषयक कालगुरुक। सूत्र को प्राप्त है, परंतु अर्थ का कथन नहीं हुआ है। मात्रक की यतना पूर्ववत् है।
है, अर्थ के कह देने पर भी उसका अधिगत हृदयंगम नहीं ४६८. अच्चित्तेणं मीसं, मीसं मीसेण छक्कमीसेणं। किया है, अथवा अधिगत होने पर भी उस पर सम्यक
सच्चित्तछक्कएणं, मीसे चउभंगिग पदेसे॥ श्रद्धा है या नहीं, यह परीक्षा किए बिना भेजने पर, प्रत्येक (अचित्त स्थंडिल के ये प्रकार हैं-(१) अचित्त मार्ग से अर्थात् अकथन, अनधिगत और अपरीक्षण के लिए चार प्राप्य (२) मिश्र मार्ग से प्राप्य (३) सचित्त मार्ग से प्राप्य।) लघुक का प्रायश्चित्त आता है-दो से लघु अर्थात् तपोलघुक
मिश्र स्थंडिल अचित्त मार्ग से गंतव्य। उसके अभाव में और काललघुक। षट्कायमिश्र मार्ग से गंतव्य। उसके अभाव में षट्कायसचित्त ४७२. अज्जक्कालिय लेवं, वयंति अवियाणिऊण सब्भावं। मार्ग से गंतव्य। मात्रक न होने पर संज्ञा के उत्सर्गकाल में ते वत्तव्वा लेवो, दिट्ठो तेलोक्कदंसीहिं॥ अथवा परिष्ठापनकाल में धर्मास्तिकाय आदि प्रदेशों की कुछेक मुनि प्रवचन के सद्भाव रहस्य को जानते हुए यह निश्रा लेकर उत्सर्ग करे।
कहते हैं कि पात्रलेप की बात अद्यकालिक है, प्राचीन नहीं है। ४६९. अच्चित्तेण सचित्तं, मीसेण सचित्त छक्कमीसेण। उनको कहना चाहिए, त्रैलोक्यदर्शियों ने पात्रलेप देखा है।
सच्चित्त छक्कएणं, सचित्त चउभंगिय पदेसे॥ ४७३. आया पवयण संजम, उवधाओ दिस्सए जओ तिविहो। (सचित्त स्थंडिल भी चार प्रकार का है। उसमें सबसे तम्हा वयंति केई, न लेवगहणं जिणा बेति॥ पहले अनापात-असंलोक में जाए। उसके अभाव में दूसरे में, लेपग्रहण में तीन प्रकार का उपघात देखा जाता हैउसके अभाव में तीसरे में और उसके अभाव में चौथे में।) आत्मोपघात, प्रवचनोपघात तथा संयमोपघात। इसलिए ___ इनमें सबसे पहले अचित्त मार्ग से जाए। उसके अभाव में । कुछेक कहते हैं-जिनेश्वरदेव लेपग्रहण की बात नहीं कहते। सचित्तमिश्र अर्थात् षट्कायमिश्र मार्ग से जाए। उसके अभाव ४७४. रहपडण उत्तमंगादिभंजणा घट्टणे य करघातो। में षट्जीवनिकाय सचित्त मार्ग से जाए। इसमें भी मात्रक की अह आयविराहणया, जक्खुल्लिहणे पवयणम्मि। यतना करनी चाहिए। मात्रक के अभाव में धर्मास्तिकाय आदि ४७५. गमणाऽऽगमणे गहणे, तिट्ठाणे संजमे विराहणया। प्रदेशों की निश्रा में व्युत्सर्ग करे।
महि सरि उम्मुग हरिया, कुंथू वासं रयो व सिया॥ ४७०. पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति। रथ आदि से गिरने पर शिर आदि शरीर के अवयव टूट
आलोयाऽऽयरियादी, आयरिओ विसोहिकारो से॥ जाते हैं। इसी प्रकार लेपयुक्त पात्र के घट्टन से हाथ में पीड़ा जिसने सप्तसप्तकादि सूत्र पढ़ा है, पाठ को जिसने सुना होती है-यह आत्मविराधना है। यक्ष अर्थात् कुत्ते अनेक बार है, अर्थ से जिसने गुणित-अभ्यस्त किया है अथवा अगुणित शकट के अक्ष को चाटते हैं, उसी प्रकार साधु लेप को ग्रहण है, धारित है अथवा अनवधारित, फिर भी जो उपयुक्त होकर कर भोजनयोग्य पात्र के लगाता है। यह प्रवचनोपघात है। स्थंडिल का उपभोग करता है वह स्थंडिल-कल्पिक होता है। तीन स्थानों में संयमोपघात होता है-लेपग्रहण के लिए जाने इस विषयक विराधना की वह आचार्य आदि के पास में, लौटकर वसति में आने पर तथा लेपग्रहण करते समय। आलोचना करता है। आचार्य उसके विशोधिकारक होते हैं। गमनागमन में सचित्त पृथ्वीकाय की विराधना, नदी के कारण उसे प्रायश्चित्त देकर शुद्ध कर देते हैं।
अप्काय की विराधना, मार्ग में उल्मुक (अलात) के संघट्टन ४७१. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुका। में अग्निकाय की विराधना, हरित्काय की विराधना, लेप में
दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा। कुंथु आदि के लगने से त्रसकाय की विराधना, वर्षा हो रही आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन हो, रजोपतन हो रहा हो-ये सारी विराधनाएं होती हैं।' १. जिज्ञासु कहता है, जिस प्रकार भगवान् ने पिंडैषणा, पात्रैषणा का प्रकार के पात्र बतलाए हैं-यथाकृत, अल्पपरिकर्म, सपरिकर्म।
कथन किया है, वैसे स्पष्टतः कहीं भी लेपैषणा का उल्लेख नहीं है। अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म पात्र लेप के बिना नहीं होते। अतः अर्थ क्योंकि इसमें आत्मोपघात, संयमोपघात और प्रवचनोपघात-तीनों के आधार पर लेप की बात स्वतः प्राप्त होती है। ओघनियुक्ति में भी उपघात होते हैं। आचार्य कहते हैं-ऐसे कहना उचित नहीं है। लेपैषणा का विस्तार से वर्णन है। (वृ. पृ. १४०)। जिनेश्वरदेव ने लेप का कथन अर्थतः किया है। पात्रैषणा में तीन
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