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पीठिका =
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४५४. अपमज्जणा अपडिलेहणा य दुपमज्जणा दुपडिलेहा।
तिय मासिय तिय पणगं, लहु काल तवे चरिम सुद्धो।। जो मुनि उत्सर्ग करने के लिए संज्ञाभूमी में जाकर स्थान का प्रतिलेखन और प्रमार्जन नहीं करता उसके मासलघु, तपोगुरु और काललघु का प्रायश्चित्त आता है। जो प्रतिलेखन नहीं करता, प्रमार्जन करता है उसे लघुमास, कालगुरु और तपोलघु का, जो प्रमार्जन नहीं करता, प्रतिलेखन करता है उसे लघुमास, जो तप और काल से लघु होता है, यह प्रायश्चित्त विहित है। उपरोक्त तीन स्थानों में काल और तप से विशेषित लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार
• दुष्प्रत्युपेक्षित और दुष्प्रमार्जित स्थंडिल होने पर पांच रात-दिन लघु-तपोगुरु और काललघु।
. दुष्प्रत्युपेक्षित और सुप्रमार्जित स्थंडिल-पांच रातदिन लघु-तपोलघु और कालगुरु।
• सुप्रत्युपेक्षित और दुष्प्रमार्जित स्थंडिल-पांच रातदिन लघु तप और काल-दोनों से लघु।
इन सब में 'चरम' अर्थात् सुप्रत्युपेक्षित और सुप्रमार्जित
है, वह उत्कृष्ट विस्तीर्ण है। जो नीचे चार अंगुल प्रमाण गहरा है। (अचित्त भूमीवाला है) वह जघन्य दूरावगाढ स्थंडिल है और जो इससे अधिक गहरा है वह उत्कृष्ट दूरावगाढ है। ४५०. दव्वासन्नं भवणाइयाण तहियं तु संजमा-ऽऽयाए।
आया-पवयण-संजमदोसा पुण भावमासन्ने॥ आसन्न स्थंडिल के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः आसन्न स्थंडिल है भवन, देवकुल, ग्राम, पथ, वृक्ष आदि के निकट। वहां शौचक्रिया करने से संयमविराधना और आत्मविराधना-दोनों होती हैं।
भावनः आसन्न स्थंडिल का तात्पर्य है-उत्सर्ग की बाधा होने पर जब तक वह उसे रोक सके तब तक रोके। रोकने में असमर्थ हो तो भवन आदि के पास उत्सर्ग करे। इससे आत्मविराधना, संयमविराधना तक प्रवचन का उपघात भी हो सकता है। ४५१. होति बिले दो दोसा, तसेसु बीएसु वा वि ते चेव।
संजोगतो य दोसा, मूलगमा होति सविसेसा॥ बिलों में मल-विसर्जन करने पर दो दोष होते हैं-आत्म- विराधना और संयमविराधना। इसी प्रकार त्रसकाय और बीजों से आक्रांत भूमी पर व्युत्सर्ग करने पर ये ही दो दोष होते हैं। 'मूलगम' अर्थात् एककसंयोग से द्विक-त्रिक आदि पदों के संयोग से 'सविशेष' अर्थात् बहु-बहुतरक दोष होते हैं। जैसे--द्विकसंयोग से दुगुना, त्रिकसंयोग से त्रिगुना, इसी प्रकार दस के संयोग से दस गुना दोष होते हैं। ४५२. मंथम्मि य आलोए, झुसिरम्मि तसेसु चेव चउलहुगा।
पुरिसावाए य तहा, तिरियावाए य ते चे॥ मार्ग के पास, पुरुषों के देखते हुए, शुषिर स्थान में, वसाकुल स्थान में व्युत्सर्ग करने पर चार लंघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार पुरुषों के आपात तथा सर्वतिर्यग्नरापात वाले स्थान पर व्युत्सर्ग करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। ४५३. इत्थि-नपुंसावाए, भावासन्ने बिले य चउगुरुगा।
पणगं लहयं गुरुगं, बीए सेसेसु मासलहुं। स्त्रियों तथा नपुंसकों के आपात वाले स्थंडिल में, भावासन्न तथा बिल वाले स्थंडिल में व्युत्सर्ग करने पर प्रत्येक के चार गुरुमास का. प्रत्येक काय बीजसंकुल स्थान पर व्युत्सर्ग करने पर लघु पांच दिनरात का अर्थात् तप और काल से लघु तथा अनन्तकाय बीजसंकुल पर उत्सर्ग करने पर गुरु प्रायश्चित्त विहित है-पांच दिनरात तप तथा काल से गुरु। शेष अशुद्ध स्थंडिल पर मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १. यह गाथा अन्य आचार्य की परिपाटी की सूचक है। यह मतान्तर है।
४५५. खुड्डो धावण झुसिरे, तिक्खुत्तो अपडिलेहणा लहुगो।
घर-वावि-वच्च-गोवय-ठिय-मल्लगछड्डणे लहुगा।। ऐसा स्थंडिल जहां विसर्जित थोड़ा मल-मूत्र बह जाता है, जो शुषिर हो, तीन प्रकार के जो अप्रत्युपेक्षित आदि स्थंडिल हों, वहां मल-मूत्र विसर्जित करने पर प्रत्येक के लिए लधुमास का प्रायश्चित्त है। तथा घर में, वापी में, वर्चीगृह अथवा मल के ऊपर, गोष्पद में, खड़े-खड़े उत्सर्ग करने में, मल्लक में व्युत्सर्ग कर परिष्ठापन करने में इन सबमें प्रत्येक के लिए प्रायश्चित्त है चार-चार लघुमास का।' ४५६. दिसि-पवण-गाम-सूरिय-छायाएँ पमज्जिऊण तिक्खुत्तो। __जस्सुग्गहो ति काऊण वोसिरे आयमे वा वि॥
शौचार्थ गया हुआ मुनि उत्तर और पूर्व दिशा की ओर पीठ कर न बैठे। जिस ओर हवा चल रही है उस ओर तथा गांव और सूर्य की ओर पीठ कर न बैठे। छाया में व्युत्सर्ग करे तथा स्थंडिल का तीन बार प्रमार्जन-प्रत्युपेक्षण कर व्युत्सर्ग करे। जिसका अवग्रह हो उसकी अनुज्ञा लेकर व्युत्सर्ग और आचमन करे। ४५७. उत्तर पुव्वा पुज्जा, जम्माएँ निसीयरा अभिवडंति।
घाणारसा य पवणे, सूरिय गामे अवन्नो उ॥ लोक में उत्तर और पूर्व दिशा पूज्य मानी जाती है। अतः
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