________________
५४
४९६. वच्चतेण यदि
सागारिदुचक्कगं तु अब्भासे । तत्थेय होइ गहणं, न होति सो सामरियपिंडो ॥ वह मुनि मल्लक को साथ ले जा रहा है। जाते-जाते उसने देखा कि शय्यातर का शकट पास वाले क्षेत्र में स्थित है उससे ही लेपयहण किया जाए क्योंकि वह शय्यातरपिंड नहीं होता ।
४९७. गंतुं दुचक्कमूलं, अणुण्णविज्जा पभुं तु साहीणं ।
एत्थ य पभु त्ति भणिए, कोई गच्छे निवसमीवं ॥ ४९८. किं देमि त्ति नरवई, तुब्भं खरमक्खिया दुकि त्ति ।
सो य पसत्थो लेवो, एत्थ य भद्देयरे दोसा ॥ वह शकट के पास जाए और निकटस्थ स्वामी से अनुज्ञा प्राप्त करे। प्रभु अर्थात् स्वामी कहने पर कोई मुनि राजा के समीप जाए और राजा के यह पूछने पर कि मुनिवर! आपको क्या दूं? तब मुनि कहे राजन् ! आपके शकट खर अर्थात् तेल से म्रक्षित हैं। वहां जो लेप है, वह प्रशस्त है। मुझे उसको ग्रहण करने की अनुज्ञा दें। ऐसी स्थिति में वहां भद्रकदोष तथा प्रान्तदोष भी हो सकते हैं।"
४९९. तम्हा दुचक्कपतिणा, तस्संदिद्वेण वा अणुण्णाते । कटुगंधजाणणा जिंघे नासं अघट्टतो ॥ इसलिए शकट के स्वामी अथवा उस स्वामी द्वारा संदिष्ट पुरुष द्वारा अनुज्ञापित होने पर तेल में कटुगंध है या नहीं यह जानने के लिए उसको सूंघे परन्तु उसका नाक से संस्पर्श न होने है (दूर से ही उसे सूंघ कर जब यह ज्ञात हो जाए कि यह तैल लेप कटुगंध वाला है तो उसे ग्रहण करे ।)
५०० हरिए बीए चले जुत्ते,
वच्छे साणे जलट्ठिए । पुढवी संपातिमा सामा, महावाते महियाऽमिते ॥ शकट हरित पर, बीज पर प्रतिष्ठित हो, चल हो, बैलों से जुता हुआ हो, उसके एक बछड़ा बंधा हो, शकट के नीचे कुत्ता हो, शकट जल के ऊपर अथवा सचित्त पृथ्वीका पर स्थित हो, संपातिम जीवों का उपद्रव हो, रात हो, महावात चल रहा हो, महिका गिर रही हो इस प्रकार की स्थिति में घोड़ा या अमित लेप का ग्रहण अनुज्ञात नहीं है। (यह द्वार गाथा है । व्याख्या आगे ।) ५०१. हरिए बीऍ पतिडिय, अणंतर परंपरे य बोधब्वे । परिताणते य तहा, चउभंगो होति नायव्वो । हरित बीज पर साधु अथवा शकट अनन्तर या परम्परक
१. (क) राजा अपने सेवकों का आज्ञा दें कि जितने भी शकट हैं, उन सबको तैल से ग्रक्षित कर दो। ये मुनि लेप भी बिना अनुज्ञा नहीं लेते। यह भद्रकदोष है।
राजा सोचता है -ये मुनि अशुचिबहुल हैं जो ऐसे लेप की भी
(ख)
Jain Education International
बृहत्कल्पभाष्यम
रूप में प्रतिष्ठित हों तो प्रत्येक की चतुर्भंगी होती है। परित्त हरित और बीज तथा अनंत हरित और बीज से संबंधित भी चतुर्भंगियां होती हैं। जैसे
(१) हरित पर साधु अनन्तरप्रतिष्ठित न परंपरप्रतिष्ठित ।
(२) परंपरप्रतिष्ठित न अनन्तरप्रतिष्ठित ।
(३) अनन्तरप्रतिष्ठित भी और परंपरप्रतिष्ठित भी। (४) न अनन्तरप्रतिष्ठित और न परंपरप्रतिष्ठित । इसी प्रकार बीज पर भी साधु से संबंधित चतुर्भंगी होती है । इसी प्रकार शकट की एक आधार पर बीज और हरित के संदर्भ में भी प्रत्येक की एक-एक चतुर्भंगी होती है। इस प्रकार चार चतुर्भंगियां होती हैं। चतुर्भगीद्वय साधु-शकट के संयोग से होती हैं। इसी प्रकार परित्त हरित, बीज तथा अनन्त हरित, बीज तथा मिश्र अनेक चतुर्भंगियां होती हैं। ५०२. चउरो लहुगा गुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरु ।
छसु परितऽणंत मीसे, बीजे य अणंतर परे ॥ यह प्रायश्चित्त निर्देशिका गाथा है। इसका शाब्दिक अनुवाद यह है
चतुर्लघुक, चतुर्गुरुक, मासलघु, मासगुरु, पांच दिनरातलघु, पांच दिनरातगुरुक। छह में परीत, अनन्त, मिश्र, बीज और अनन्तर तथा परंपर।
विविध चतुर्भीगियां और प्रायश्चित्त का कथन१. प्रत्येक हरित साधु
अनन्तर प्रतिष्ठित चारलघु परंपर प्रतिष्ठित चारलघु
• उभय प्रतिष्ठित दो चारलघुक शुद्ध ।
२. प्रत्येक हरित साधु और शकट
• अनन्तर प्रतिष्ठित वो चतुर्लघु • परंपर प्रतिष्ठित वो चतुर्लघु उभय प्रतिष्ठित चार चतुर्लघु • शुद्ध ।
३. अनन्त हरित-साधु
For Private & Personal Use Only
• अनन्तर प्रतिष्ठित - चारगुरुक • परंपर प्रतिष्ठित चारगुरुक
• उभय प्रतिष्ठित-दो चतुर्गुरुक
• शुद्ध ।
याचना करते हैं। उसके मन में प्रद्वेष उभर सकता है और वह अपने राज्य में यह आदेश प्रसारित कर देता है-मेरे राज्य में कोई भी व्यक्ति शकट को तैल से म्रक्षित न करे, घृत या अन्य पदार्थ से करे। यह प्रान्तदोष है ।
www.jainelibrary.org