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पीठिका = लेप को पात्र में लेकर वहीं लगाने पर देखने वालों को यह निःशंकित हो जाता है कि ये मुनि अशुचिमय लेप से भोजन के भाजन को लिस करते हैं। अन्यथा लेप को शराव आदि में लेने से लोगों को केवल शंका हो सकती है कि लेप का ग्रहण पात्र के लिए अथवा पैर आदि पर पट्टी बांधने के लिए ले जा रहे हों। ४८५. जइ वा हत्थुवघाओ, आणिज्जंतम्मि होइ लेवम्मि।
पडिलेहणादि चेट्ठा, तम्हा उ न काइ कायव्वा॥ यदि लेप को लाने में हस्तोपघात होता है तो प्रतिलेखन आदि क्रियाओं में भी हस्तोपघात होता है तो वे क्रियाएं नहीं करनी चाहिए। किन्तु उन क्रियाओं से अनेक गुण संभव होते हैं. अतः वे अवश्य करणीय होती हैं। ४८६. जति नेवं तो पुणरवि, आणेउं लिंपिऊण हत्थम्मि। __ अच्छति धारेमाणो, सम्वनिक्खेवपरिहारी॥
यदि वहां जाकर पात्र पर लेप करने की बात इष्ट न हो तो स्थान पर लेप लाकर, पात्र पर उसको लगाकर, गीले पात्र में कुछ भी डालने का परिहार करने वाला वह मुनि हाथ में ही उसको उठाए रखे जब तक लेप का शोष न हो जाए, जब तक लेप न सूख जाए। ४८७. एवं पि हु उवघातो, आयाए संजमे पवयणे य।
चार सजम पवयण या मुच्छादी पवडते, तम्हा उ न सोसए हत्थे॥ इस प्रकार लेप-सुखाने की प्रक्रिया करने पर भी आत्मोपघात, संयमोपघात तथा प्रवचनोपघात-तीनों उपघात होते हैं। जैसे वह मुनि मूर्छा के कारण अथवा पात्रभार के कारण गिर जाता है तब आत्मोपघात होता है। षट्काय पर गिरने से संयमोपघात और मुनि को गिरते हुए देखकर लोगों का उडाह करना प्रवचनोपघात है। इसलिए हाथ में पात्र को उठाकर सुखाने की क्रिया नहीं करनी चाहिए। ४८८. दुविहा य होति पाता, जुण्णा य नवा य जे उ लिप्पंति।
जुण्णे दाएऊणं, लिंपति पुच्छा य इयरेसिं॥ जिन पात्रों पर लेप किया जाता है, वे दो प्रकार के होते हैं-जीर्ण-पुराने और नए। जीर्ण पात्र को आचार्य को दिखाए
और उनकी अनुज्ञा लेकर लेप करे। नए पात्र पर बिना पूछे भी लेप लगाया जा सकता है। ४८९. पाडिच्छग-सेहाणं, नाऊणं कोइ आगमण मायी।
दढलेवे विउ पाए, लिंपति मा तेसि दिग्जिज्जा॥ ४९०. अहवा वि विभूसाए, लिंपति जा सेसगाण परिहाणी।
अपडिच्छणे य दोसा, सेहे काए यतोऽदाए॥ लेप लगाने से पूर्व जीर्ण पात्रों को आचार्य को न दिखाने
पर ये दोष होते हैं-कोई मायावी शिष्य प्रातीच्छिक शिष्यों का आगमन जानकर 'गुरु इनको पात्र न दे डालें' इस बुद्धि से दृढ़लेपयुक्त पुराने पात्र पर भी पुनः लेप लगाता है। अथवा विभूषा के लिए उस पर लेप लगाता है तो शेष शिष्यों तथा प्रतीच्छिकों के परिहानि होती है। पात्र न दिए जाने पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र की हानि होती है। कोई शैक्ष प्रव्रज्या के निमित्त आया है। पात्र के अभाव में प्रव्रज्या नहीं दी जाती। तब वह शैक्ष काय-विराधना कर सकता है। आचार्य को दिखाए बिना ये दोष होते हैं। ४९१. पुव्वण्हे लेवगम, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं।
लेवस्स आणणा लिंपणा य जयणाएँ कायव्वा॥ पूर्वाह्न लेप लाने के लिए जाए। लेपग्रहण कर सुसंवररूप से लेप का आनयन करे और फिर यतनापूर्वक लेप लगाए। ४९२. पुव्वण्हे लेपगहणं, काहं ति चउत्थगं करेज्जाहि।
असहू वासियभत्तं, अकारऽलंभे व दितियरे॥ 'मैं पूर्वाह्न में लेपग्रहण करूंगा' यह सोचकर मुनि उपवास करे। यदि उपवास करने में असमर्थ हो तो वासी आहार लाए। पर्युषित (वासी) भक्त अकारक अर्थात अपथ्य हो, अथवा प्राप्त न हो तो दूसरे मुनि घूम फिरकर उसे आहार लाकर दे। ४९३. कयकिइकम्मो छंदेण छंदितो भणति लेव घिच्छामि।
तुब्भं वियाणिमट्ठो, आमं तं कित्तियं किं वा।। ४९४. सेसे वि पुच्छिऊणं, कयउस्सग्गो गुरूण नमिऊण।
मल्लग-रूए गेण्हइ, जति तेसिं कप्पितो होति॥ कृतिकर्म संपन्न कर वह मुनि आचार्य के पास जाकर कहे-'इच्छाकारेण संदिशत'-आप अपनी इच्छानुसार मुझे कार्य में नियोजित करें। यदि आचार्य कहें-'तुम अपना अभिप्राय बताओ।' इस प्रकार आचार्य द्वारा निमंत्रित होने पर वह कहे-'मैं लेप लाने के लिए जाना चाहता हूं।' फिर वह सभी साधुओं से कहे-'क्या और किसी के लेप का प्रयोजन हो तो बताए।' कोई कहे-मुझे लेप चाहिए। तब उसे पूछे-कितना लाऊं? कौनसा लेप चाहिए? वह जो कहे उसे स्वीकार कर उपयोगकायोत्सर्ग संपन्न कर गुरु को नमस्कार करे। यदि वह मुनि पात्र और वस्त्र का कल्पिक हो तो गृहों में जाकर मल्लक और रूई ग्रहण करे। ४९५. गीयत्थपरिग्गहिते, अयाणओ रूय-मल्लए घेत्तुं।
छारं च तत्थ वच्चति, गहिए तसपाणरक्खट्ठा।। यदि वह अज्ञायक अर्थात् अगीतार्थ हो तो गीतार्थ द्वारा परिगृहीत रूई और मल्लक लेकर जाए और त्रसप्राणियों की रक्षा के लिए उस मल्लक में क्षार डाल दे।
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