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पहला उद्देशक
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१३३२.तवभावणाइ पंचिंदियाणि दंताणि जस्स वसमिति।
इंदियजोग्गा(गा)यरिओ, समाहिकरणाई कारयए॥ तपोभावना से जिसकी पांचों इन्द्रियां दान्त और वशवर्ती हो गई हैं वह 'इन्द्रिययोगाचार्य मुनि इन्द्रियों को समाधि करने वाली कर देता है, जैसे-जैसे ज्ञान आदि में समाधि उत्पन्न हो, वैसे-वैसे उनको कर देता है। १३३३.जे वि य पुट्विं निसि निग्गमेसु विसहिंसु साहस-भयाइं।
अहि-तक्कर-गोवाई, विसिंसु घोरे य संगामे॥ जो राजा प्रव्रजित हुए, उन्होंने पहले (गृहवास में) रात्रीकाल में निर्गम आदि में वीरचर्या (प्रजा के योगक्षेम का वृत्तांत जानने के लिए गुप्तरूप में घूमना) करते हुए साहस-साध्वस अर्थात् अहेतुक भय तथा सर्प, तस्कर, गोप
आदि से संबंधित सहेतुक भय को सहन किया था तथा जिन्होंने घोर संग्राम में प्रवेश किया था, उनको भी जिनकल्प लेने से पूर्व सत्त्वभावना से स्वयं को भावित करना होता है। १३३४.पासुत्ताण तुयर्ट्स, सोयव्वं जं च तीसु जामेसु।
थोवं थोवं जिणइ उ, भयं च जं संभवइ जत्थ॥ वे एक पार्श्व से या चितलेटने का अभ्यास करते हैं, तीन प्रहर तक शयन अथवा कारण के अभाव में तीसरे प्रहर में शयन करने की पद्धति पर धीरे-धीरे विजय प्राप्त करते हैं तथा उपाश्रय में जीव-जन्तुओं आदि के भय को जीतने का अभ्यास करते हैं। १३३५.पढमा उवस्सयम्मी, बिइया बाहिं तइया चउक्कम्मि।
सुन्नघरम्मि चउत्थी, तह पंचमिया सुसाणम्मि॥ सत्त्वभावना के अभ्यास की ये पांच प्रतिमाएं हैं- पहली प्रतिमा है उपाश्रय में। दूसरी है उपाश्रय से बाहर। तीसरी है चतुष्कमार्ग में। चौथी है शून्यघर में। पांचवी है श्मशान में। १३३६.भोगजढे गंभीरे, उव्वरए कोट्टए अलिंदे वा।
तणुसाइ जागारो वा, झाणट्ठाए भयं जिणइ।। उपाश्रय के अपरिभोग्य तथा गंभीर अर्थात् अत्यंत अंधकारयुक्त अपवरक, कोष्ठक अथवा अलिंद पर बैठ कर, अल्पनिद्रावान् अथवा जागता हुआ ध्यान में स्थित होता है। वह भय पर विजय पाने का प्रयत्न करता है। यह पहली प्रतिमा है। १३३७. छिक्कस्स व खइयस्स व, मूसिगमाईहिं वा निसिचरेहि।
जह सहसा न वि जायइ रोमंचुब्भेय चाडो वा॥ जो रात्री में परिभ्रमण करते हैं उन मूषकों, मार्जारों से स्पृष्ट होने पर या काटे जाने पर सहसा अर्थात् भय नहीं १. इन्द्रियप्रगुणनक्रियागुरुः।
होता, रोमोद्गम नहीं होता तथा चाडो-पलायन नहीं होताऐसी सत्त्वभावना से आत्मा को भावित करना चाहिए। १३३८.सविसेसतरा बाहिं, तक्कर-आरक्खि -सावयाईया।
सुण्णघर-सुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा॥ जो उपाश्रय प्रतिमा में भय होते हैं वे उपाश्रय से बाहर विशेषतर होते हैं। बाहर तस्कर, आरक्षिक तथा श्वापदों का भय विशेष होता है। शून्यगृह तथा श्मशान आदि में दिव्य, मानुष्य और तैरश्च-ये तीन प्रकार के उपसर्गरूप भय विशेषतर होते हैं। वह मुनि उनको भी करता है। १३३९.देवेहिं भेसिओ वि य, दिया व रातो व भीमरूवेहिं।
तो सत्तभावणाए, वहइ भरं निब्भओ सयलं॥ इस प्रकार स्वयं द्वारा अभ्यस्त सत्त्वभावना से वह मुनि दिन में या रात में भयंकररूप वाले देवों से भयभीत किए जाने पर भी जिनकल्प साधना का समस्त भार निर्भय होकर वहन कर सकता है। १३४०. जइ वि य सनाममिव परिचियं सुअं अणहिय-अहीणवन्नाई।
कालपरिमाणहेउं, तहा वि खलु तज्जयं कुणइ। यद्यपि अपने नाम की भांति जिसके श्रुत अनधिकाक्षर तथा अहीनाक्षर रूप में परिचित है, स्मृति में है, फिर भी वह कालपरिमाण को जानने के लिए वह श्रुत पर विजय प्राप्त करता है अर्थात् श्रुत का अभ्यास करता है। १३४१.उस्सासाओ पाणू, तओ य थोवो तओ वि य मुहत्तो।
मुहत्तेहिं पोरिसीओ, जाणेइ निसा य दिवसा य॥ श्रुतपरावर्तन के अनुसार वह उच्छ्रास के परिमाण को जान लेता है। फिर प्राण अर्थात् उच्छास निःश्वास, तदनन्तर स्तोक-सात प्राणों का परिमाण, तदनन्तर मुहूर्त, मुहूर्तों से पौरुषी को जान लेता है। पौरुषी के अनन्तर वह मुनि रात और दिन के परिमाण का ज्ञान कर लेता है। १३४२.मेहाईछन्नेसु वि, उभओकालमहवा उवस्सग्गे।
पेहाइ भिक्ख पंथे, नाहिइ कालं विणा छायं। आकाश मेघ से आच्छन्न होने पर भी उभयकाल अर्थात् क्रिया का प्रारंभकाल और परिसमाप्तिकाल अथवा उपसर्ग होने पर प्रतिलेखन आदि का काल तथा भिक्षाकाल और विहरणकाल-वह बिना छाया के भी इन सबको स्वयं जान जाता है। १३४३.एगग्गया सुमह निज्जरा य नेव मिणणम्मि पलिमंथो।
न पराहीणं नाणं, काले जह मंसचक्खूणं । श्रुतपरावर्तन से एकाग्रता और महान् निर्जरा होती है। इस विधि से कालज्ञान होने पर छाया मापने से होने वाला
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