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________________ १४२ =बृहत्कल्पभाष्यम् पलिमंथ (सूत्रार्थव्याघात) नहीं होता। उनका कालज्ञान रखा। दोनों साथ-साथ बढ़ रहे थे। दोनों में अनुराग बढ़ता पराधीन नहीं होता जैसे मांसचक्षुवाले अर्थात् छद्मस्थ साधुओं गया। पुष्पचूल राजा बना। 'घरजमाई' को पुष्पचूला दी गई। के होता है। वह अपने पति के साथ केवल रात में मिलती थी। राजा १३४४.सुयभावणाए नाणं, दंसण तवसंजमं च परिणमइ। पुष्पचूल प्रवजित हो गया। उसके अनन्तर पुष्पचूला भी तो उवओगपरिण्णो, सुयमव्वहितो समाणेइ॥ प्रवजित हो गई। मुनि पुष्पचूल जिनकल्प स्वीकार करने का श्रुतभावना से ज्ञान, दर्शन, तप और संयम की सम्यक् इच्छुक था। वह एकत्वभावना से स्वयं को भावित करने परिणति होती है। वह उपयोगपरिज्ञ मुनि अर्थात् श्रुतोपयोग- लगा। एक देव ने उसकी परीक्षा के निमित्त उपसर्ग रूप में मात्र से कालपरिज्ञाता मुनि अव्यथित होकर श्रुतभावना का साध्वी पुष्पचूला का रूप बनाया। धूर्त्त लोग उसकी विडंबना समापन करता है। करने लगे। मुनि पुष्पचूल उसी मार्ग से आ रहे थे। उन्हें १३४५.जइ वि य पुव्वममत्तं, छिन्नं साहहिं दारमाईसु। देखकर साध्वी पुष्पचूला चिल्लाने लगी-आर्य! शरण दो, आयरियाइममत्तं, तहा वि संजायए पच्छा॥ शरण दो।' मुनि ने सुना, परंतु वे तो ममत्व को मिटा चुके थे। यद्यपि साधुओं ने पत्नी आदि के प्रति होने वाले गृहवास- उन्होंने सोचा-'मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है। मैं भी किसी कालभावी ममत्व का छेदन कर डाला है, फिर भी पश्चात् का नहीं हूं।' इस प्रकार एकत्वभावना में लीन मुनि आगे बढ़े प्रव्रज्याकाल में आचार्य आदि विषयक ममत्व हो जाता है। और अपने स्थान पर आ गए। (उसको कैसे तोड़ा जा सकता है ?) १३५२.एगत्तभावणाए, न कामभोगे गणे सरीरे वा। १३४६.दिट्ठिनिवायाऽऽलावे, अवरोप्परकारियं सपडिपुच्छं। सज्जइ वेरग्गगओ, फासेइ अणुत्तरं करणं॥ परिहास मिहो य कहा, पुव्वपवत्ता परिहवेइ॥ एकत्वभावना से भावित आत्मा वाला मुनि न कामभोगों १३४७.तणुईकयम्मि पुव्वं, बाहिरपेम्मे सहायमाईसु।। में, गण में और न शरीर में ममत्व करता है, वह वैराग्य को आहारे उवहिम्मि य, देहे य न सज्जए पच्छा॥ प्राप्त होता हुआ अनुत्तर करण अर्थात् जिनकल्प की आराधना गुरु के प्रति जो पहले स्निग्ध दृष्टिपात तथा आलाप- करता है। संलाप होते थे, जो परस्परोपकारिता, सप्रतिपृच्छा-सूत्रार्थ १३५३.भावो उ अभिस्संगो, सो उ पसत्थो व अप्पसत्थो वा। की प्रतिपृच्छा, परिहास, मिथःकथा-परस्परवार्ता इस प्रकार नेह-गुणओ उ रागो, अपसत्थ पसत्थओ चेव॥ सभी पूर्वप्रवृत्त चेष्टाओं का परिहार करता है तथा अपने भाव का अर्थ है-अभिष्वंग। वह दो प्रकार का होता हैसहायक साधुओं के प्रति बाह्य प्रेम को तनु करने के पश्चात् प्रशस्त और अप्रशस्त। स्नेहजनित जो राग है, वह अप्रशस्त आहार, उपधि और देह के प्रति भी ममत्व नहीं करता। है तथा गुणों के प्रति जो राग है वह प्रशस्त है। १३४८.पुब्बिं छिन्नममत्तो, उत्तरकालं वविज्जमाणे वि। १३५४.कामं तु सरीरबलं, हायइ तव-नाणभावणजुअस्स। साभाविय इअरे वा, खुब्भइ दुटुं न संगइए॥ देहावचए वि सती, जह होइ धिई तहा जयइ॥ पहले ही उसने ममत्व का छेदन कर डाला था। उत्तर- हम यह मानते हैं कि तपभावना और ज्ञानभावना से युक्त काल अर्थात जिनकल्प को स्वीकार करने के पश्चात् मुनि का शरीरबल क्षीण होता है। उसके देह का अपचय होने जिनकल्प का हनन करने वाले स्वाभाविक स्वजन अथवा पर भी अपना धृतिबल निश्चल करने के लिए वह प्रयत्न इतर-देवनिर्मित स्वजनों को देखकर भी क्षुब्ध नहीं होता। करता है। १३४९.पुप्फपुर पुप्फकेऊ, पुप्फुवई देवि जुयलयं पस। १३५५.कसिणा परीसहचमू, जइ उठ्ठिज्जाहि सोवसग्गा वि। पुत्तं च पुप्फचूलं, धूअं च सनामिअं तस्स॥ दुद्धरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं॥ १३५०.सहवड्डियाऽणुरागो, रायत्तं चेव पुप्फचूलस्स। १३५६.धिइधणियबद्धकच्छो, जोहेइ अणाउलो तमव्वहिओ। घरजामाउगदाणं, मिलइ निसिं केवलं तेणं॥ बलभावणाए धीरो, संपुण्णमणोरहो होइ॥ १३५१.पव्वज्जा य नरिंदे, अणुपव्वयणं च भावणेगत्ते। यदि संपूर्ण परीषहरूपी सेना, जो अल्पबल वाले व्यक्तियों वीमंसा उवसग्गे, विडेहिं समुहिं च कंदणया॥ के लिए भय पैदा करने वाली है तथा जो मोक्षमार्ग को दुर्वह पुष्पपुर नगर में पुष्पकेतु राजा था। उसकी रानी का नाम बनाने वाले वेग से युक्त है तथा जिसने दिव्य आदि उपसर्गों या पुष्पवती। उसने युगल का प्रसव किया। पुत्र का नाम की सहायता प्राप्त कर ली है, वैसी सेना भी यदि सम्मुख आ पुष्पचूल और पुत्री का नाम 'सनामिक' अर्थात् पुष्पचूला जाए तो वह जिनकल्प स्वीकार करने वाला मुमुक्षु उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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