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पहला उद्देशक
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साथ युद्ध करने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। वह धीर मुनि अथवा आहार और उपधि विषयक दो प्रकार का परिकर्म अत्यधिक धृति के कच्छ से बद्ध, अनाकुल, अव्यथित- होता है। सात पिंडेषणाओं में आद्य दो का अग्रहण और शेष निष्प्रकंप होकर बलभावना से उसके साथ युद्ध करता है, पांच में से दो का ग्रहण अभिग्रहपूर्वक होता है। एक से भक्त उसको पराजित कर अपने संपूर्ण मनोरथ को पूरा करता है। का ग्रहण और एक से पानक का।' १३५७.धिइ-बलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। १३६३.निप्फाव-चणकमाई, अंतं पंतं तु होइ वावण्णं।
तं तु न विज्जइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ॥ नेहरहियं तु लूह, जं वा अबलं सभावेणं॥ ये सारी भावनाएं धृति और बल से युक्त होती हैं। ऐसा वल्ल (राजमाष या एक प्रकार का गेहूं), चना आदि कोई साध्य नहीं है, जो धृतिमान् पुरुष सिद्ध न कर सके। अन्त तथा वे ही कुथित होने पर प्रान्त कहलाते हैं। १३५८.जिणकप्पियपडिरूवी, गच्छे वसमाण दुविह परिकम्म। स्नेहरहित रूक्ष कहलाता है अथवा जो स्वभाव से ही अबल
ततियं भिक्खायरिया, पंतं, लूहं अभिगहीया॥ होता है (जैसे रब्बा आदि) वह भी रूक्ष ही कहलाता है। इस प्रकार पांच भावनाओं से भावित मुनि जिनकल्प का १३६४.उक्कडुयासणसमुई, करेइ पुढवीसिलाइसुववेसे। प्रतिरूपी होकर गच्छ में रहता हुआ दो प्रकार का परिकर्म
पडिवन्नो पुण नियमा, उक्कुडुओ केइ उ भयंति॥ करता है-अभिग्रहपूर्वक तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या करना, १३६५.तं तु न जुज्जइ जम्हा, अणंतरो नत्थि भूमिपरिभोगो। उसमें भी अंत-प्रांत और रूक्ष आहार ग्रहण करना तथा
तम्मि य हु तस्स काले, ओवग्गहितोवही नत्थि॥ अभिग्रहपूर्वक एषणा करना।
जिनकल्प स्वीकार करने वाला मुनि उत्कटुक आसन का १३५९.परिणाम-जोगसोही, उवहिविवेगो य गणविवेगो य। अभ्यास करता है। पृथ्वी शिला आदि पर बैठ सकता है। जो
सिज्जा-संथारविसोहणं च विगईविवेगो य॥ जिनकल्प को स्वीकार कर चुका है वह नियमतः उत्कटुक १३६०.तो पच्छिमम्मि काले, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं। आसन में ही बैठता है। कुछेक आचार्य इस चर्या में विकल्प
पच्छा निच्छयपत्थं, उवेइ जिणकप्पियविहारं॥ मानते हैं-उत्कटुक अथवा सीधा बैठना। यह विकल्प उचित परिणाम अर्थात् गुरु आदि के प्रति होने वाले ममत्व के नहीं लगता, क्योंकि साधु के लिए भूमी का परिभोग विच्छेद से, योगशोधि आवश्यक आदि यथाकाल करने से अव्यवहित नहीं होना चाहिए। जिनकल्पकाल में औपग्रहिक होने वाली शुद्धि से, उपधिविवेक, गणविवेक, शय्या- उपधि नहीं होती। उसके अभाव में निषद्या भी नहीं होती। संस्तारक का विशोधन, विकृतिविवेक-यह सारा उसे करना इसलिए उसका उत्कटुक रहना ही उचित है। चाहिए।
१३६६.दव्वाई अणुकूले, संघं असती गणं समाहृय। तदनन्तर पश्चिम काल में गणव्यवच्छित्ति करने के जिण गणहरे य चउदस, अभिन्न असती य वडमाई।। पश्चात् सत्पुरुषों द्वारा परिपालित, परमधोर, भविष्य का ___द्रव्य आदि की अनुकूलता होने पर संघ के अभाव में गण निश्चित पथ्य-एकान्तहितकारक जिनकल्पिकविहार को। को अवश्य एकत्रित करना चाहिए। तदनन्तर तीर्थंकर या स्वीकार करे।
गणधर या चतुर्दशपूर्वी या अभिन्नदशपूर्वी इनमें से किसी के १३६१.पाणी पडिग्गहेण व, सच्चेल निचेलओ जहा भविया। पास जिनकल्प ग्रहण करे। इनके अभाव में वटवृक्ष आदि
सो तेण पगारेणं, भावेइ अणागयं चेव॥ (अशोक, अश्वत्थ आदि) के नीचे स्वयं जिनकल्प को दो प्रकार का परिकर्म है-पाणिपरिकर्म तथा प्रतिग्रह- स्वीकार करे। परिकर्म। अथवा सचेलपरिकर्म और अचेलपरिकर्म। इनमें से १३६७.गणि गणहरं ठवित्ता, खामे अगणी उ केवलं खामे। जो पाणिपात्रधारक अथवा प्रतिग्रहधारक अथवा सचेलक या
सव्वं च बाल-बुद्धं, पुव्वविरुद्धे विसेसेणं॥ अचेलक होता है, वह भविष्य में उसी प्रकार से जीवन यापन गणी--आचार्य अपने उत्तराधिकारी गणधर की स्थापना करता है।
कर श्रमणसंघ से क्षमायाचना करते हैं। जो गणी नहीं होते, १३६२.आहारे उवहिम्मि य, अहवा दुविहं तु होइ परिकम्म। सामान्य साधु होते हैं, वे किसी की स्थापना न कर समस्त
पंचसु गह दोसु अग्गह, अभिग्गहो अन्नयरियाए॥ संघ से, उसके अभाव में बाल और वृद्ध मुनियों से संकुल १. उपधि विषयक परिकर्म के लिए देखें-पीठिका गाथा ६१० आदि तथा ६५५ आदि। उनमें भी आद्य दो को छोड़कर शेष का ही ग्रहण। उसमें भी
अभिग्रहपूर्वक। २. समुइं-देशीवचनात्वाद् अभ्यासं करोति। (वृ. पृ. ४१४)
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