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________________ १४० हे, उसमें प्रत्येक के छह-छह प्रकार हैं जो अभिमान के अभिनिवेश से निमित्त का व्याकरण करता है, वह आसुरी भावना है, अन्यथा आभियोगिक भावना है। १३१९. चंक्रमणाई सत्तो, सुनिक्किवो थावराइसत्तेसु । काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ ॥ जो अन्य कार्य में व्यापूत होकर दयाहीन भावों से स्थावर आदि जीवों पर चंक्रमण आदि करता है, तथा जो चंक्रमण आदि करके अनुतप्त नहीं होता, ऐसा व्यक्ति निष्कृप होता है। १३२०, जो उ परं कंपतं दणन कंपए कठिणभावो । एसो उ निरणुकंपो अणु पच्छाभावजोएणं ॥ जो दूसरे को कंपित देखकर भी, कठिन परिणाम वाला होकर स्वयं प्रकंपित नहीं होता, वह निरनुकंप होता है। पश्चात् भाववाचक अनु शब्द से जो योग है, वह अनुकंप है। जैसे- अनु अर्थात् पश्चात् । दुःखित प्राणी के कंपन के अनन्तर जो कंपन होता है, वह है अनुकंपा । जिससे यह अनुकंपा निर्गत हो गई है, वह है निरनुकंप | १३२१. उम्मग्गदेसणा मम्गदूसणा मग्गविप्पडीवत्ती । मोहेण य मोहित्ता, सम्मोहं भावणं कुणइ ॥ उन्मार्गदेशना, मार्गदूषणा, मार्गविप्रतिपत्ति, मोह से स्वयं मूद, दूसरों को मोहित करना ऐसी होती है साम्मोही भावना (व्याख्या आगे)। १३२२. नाणाइ अदूसिंतो, तव्विवरीयं तु उवदिसइ मग्गं । उम्मग्गदेसओ एस आय अहिओ परेसिं च ॥ जो ज्ञान आदि को अदूषित करता हुआ, ज्ञान आदि के विपरीत मार्ग का उपदेश देता है, वह उन्मार्गदेशक है। वह स्वयं और दूसरे के लिए अहित प्रतिकूल होता है। १३२३. नाणादि तिहा मग्गं, दूसयए जे य मग्गपडिवन्ना । अबु पंडियमाणी समुट्ठितो तस्स घायाए । ज्ञान, दर्शन और चारित्र - यह आराधना का त्रिविध मार्ग है। जो इनमें दूषण बताता है तथा जो मुनि इस मार्ग पर प्रस्थित हैं, उनमें दूषण बताता है वह अबुध-तत्त्वज्ञान से विकल तथा पंडितमानी व्यक्ति पारमार्थिक मार्ग के घात के लिए उद्यत होता है। यह है मार्गदूषणा । १३२४. जो पुण तमेव मग्गं दूसेउमपंडिओ सतक्काए । उम्मर पडिवज्जर, अकोविअप्पा जमालीव ॥ जो उसी पारमार्थिक मार्ग को दूषित कर, अपंडितसदबुद्धिविकल व्यक्ति अपने तर्कों के आधार अकोविदात्मा जमालि की भांति उन्मार्ग को स्वीकार करता है, यह मार्ग की विप्रतिपत्ति है। पर १. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ५७। Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् १३२५. भावोवहयमईओ, मुज्झइ नाण चरणंतराईसु । इडीओ अ बहुविहा दद्रु परतित्वियाणं तु ॥ जिसकी मति भाव अर्थात् शंका आदि के परिणामों से उपहत है, वह व्यक्ति ज्ञानान्तरों (विशेष ज्ञानों) में तथा चरणान्तरों आदि में व्यामूढ़ हो जाता है वह परतीर्थिकों की अनेकविध ऋद्धियों को देखकर मोहित हो जाता है, यह है मोह | , १३२६. जो पुण मोहेह परं सम्भावेणं व कअवेणं वा । सम्मोहभावणं सो, पकरेइ अबोहिलाभाय ॥ जो व्यक्ति सद्भाव से अथवा कैतव माया से दूसरों को मोहित करता है, वह सम्मोहभावना करता है। इसका फल है-अबोधिलाभ | 3 १३२७. आओ भावणाओ भावित्ता देवदुम्गाई जंति । तत्तो वि चुया संता, परिंति भवसागरमणंतं ॥ इन भावनाओं के अभ्यास से मुनि देवदुर्गति अर्थात् कान्दर्पिकादि देवगति को प्राप्त होते हैं। वहां से च्युत होकर भी वे अनन्त भवसागर में पर्यटन करते हैं। १३२८. तवेण सत्तेण सुत्तेण, एमत्तेण य । बलेण तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवन्जओ ।। जो जिनकल्प साधना को स्वीकार करना चाहता है। उसके लिए ये पांच तुलाएं हैं, भावनाएं हैं-तप, सत्त्व, श्रुत, एकत्व और बल । १३२९. जो जेण अणन्भत्थो, पोरिसिमाई तवो उतं तिगुणं । कुणइ छुहाविजयट्ठा, गिरिनइसीहेण दिट्टंतो ॥ जो जिस पौरुषी आदि तप में अनभ्यस्त है वह उस तप को तीन-तीन बार करता है, जिससे कि तप आत्मसात् हो जाए । तप का मूल प्रयोजन है-क्षुधा पर विजय प्राप्त करना । इसमें 'गिरिनवीसिंह' का दृष्टांत वक्तव्य है।" १३३०. एक्क्कंताव तवं करेइ जह तेण कीरमाणेणं । हाणी न होइ जइआ, वि होज्ज छम्मासुवस्सग्गो ॥ वह एक-एक तप तब तक करता है जब तक वह तप करने पर अपने विहित अनुष्ठान में कोई हानि नहीं होती। यदि छहमास पर्यन्त भी उपसर्ग हों तब भी वह छहमास का तप कर लेता है। १३३१. अप्पाहारस्स न इंदियाई विसएस संपवत्तंति । नेव किलम्म तवसा, रसिएसन सज्जए यावि ॥ अल्पाहार करने वाले मुनि की इन्द्रियां विषयों में संप्रवर्तित नहीं होती। वह मुनि तपस्या से क्लान्त नहीं होता। वह रसिक अर्थात् स्निग्ध भोजन में आसक्त नहीं होता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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