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बृहत्कल्पभाष्यम् ३. भावतः और द्रव्यतः स्वीकृत।
द्रव्यतः अच्छिन्न है। सागारिक द्वारा अदृष्ट होने पर क्षेत्रतः ४. दोनों से स्वीकृत नहीं।)
अच्छिन्न है। जहां वेला का निर्देश नहीं है वह कालतः ३६१९.उच्छंगे अणिच्छाए, ठविया दव्वगहिया ण पुण भावे। अच्छिन्न है और जहां ले जाने का भाव अव्यवच्छिन्न है वह
एत्थ पुण भद्द-पंता, अचियत्तं चेव घेप्पंते॥ भावतः अच्छिन्न है। ३६२०.वावार मट्टिया-असुइलित्तहत्था उ बिइयओ भंगो। ३६२३.भावो जाव न छिज्जइ,विप्परिणय गेण्ह मोत्तु खेत्तं तु। दोसु वि गहिए तइओ, चउत्थभंगे उ पडिसेहो।
खेत्ते वि होति गहणं, अद्दिद्वे विप्परिणतम्मि॥ भाई द्वारा प्रेषित भर्जिका (प्रहेणक) को बहिन ने स्वीकार जब तक भाव व्यवच्छिन्न नहीं होता तब तक नहीं नहीं किया। उसके न चाहते हुए भी उसे लाने वाली ने कल्पता। 'जब नहीं ले जाऊंगा'-यह भाव विपरिणतउसको बहिन की ननद की गोद में रख दिया। यह आहृतिका व्यवच्छिन्न हो जाता है तब ग्रहण करना कल्पता है, किन्तु द्रव्यतः स्वीकृत है, भावतः नहीं। इसमें भद्रक और प्रान्त क्षेत्रछिन्न नहीं कल्पता। क्षेत्रछिन्न भी लेना तब कल्पता है जब दोष होते हैं तथा इसको ग्रहण करने पर अप्रीति उत्पन्न होती। ले जाने का भाव विपरिणत हो जाता है और सागारिक के है। यह प्रथम भंग है।
द्वारा अदृष्ट होता है। वह भगिनी उस समय किसी कार्य में व्याप्त हो, मृत्तिका ३६२४.पुरतो पसंग-पंता, अचियत्तं चेव पुव्वभणियं तु। अथवा अशुचि से हाथ लिप्स हों तो कहती है-इसको यहां रख बितिय-ततिया उ पिंडो, पढम-चउत्था पसंगेहिं। दो। यह भावतः स्वीकृत है, द्रव्यतः नहीं। यह द्वितीय भंग सागारिक के सामने ग्रहण करने पर भद्रक और प्रान्त है। तृतीय भंग में द्रव्यतः और भावतः स्वीकृत है और चतुर्थ का प्रसंग आता है। पूर्वभणित अप्रीतिक की बात भी आती भंग में द्रव्यतः और भावतः प्रतिषेध है।
है। दूसरे और तीसरे भंगवर्ती पिंड, शय्यातरपिंड होने (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार की के कारण परिहर्तव्य है। पहले और चौथे भंगवर्ती पिंड आहृतिकाओं के दो-दो भेद और हैं-छिन्न और अच्छिन्न।) शय्यातर पिंड नहीं होते, परन्तु प्रसंगदोष के भय से वे भी ३६२१.संकप्पियं व दव्वं, दिट्ठा खेत्तेण कालतो छिन्नं। वर्ण्य हैं।
दोसु उ पसंगदोसा, सागारिए भावतो दुविहो॥ ३६२५.कप्पइ अपरिग्गहिया, णिक्खेवे चउ दुगं अजाणता। अमुक द्रव्य उसके घर ले जाना है, इस प्रकार का
जाणता वि य केई, सम्मोहं काउ लोभा वा॥ संकल्प करना या इस प्रकार संकल्प कर उस द्रव्य को कुछ आचार्य कहते हैं-निक्षेप चतुष्क (श्लोक ३६१८) अलग रख देना यह द्रव्यतः छिन्न है। आहृतिका को में पहले और चौथे भंग के आधार पर प्रस्तुत सूत्र प्रवृत्त सागारिक ने देख लिया वह क्षेत्रतः छिन्न है। जिसमें काल की हुआ है। वे इस सूत्र के अर्थ को न जानते हुए या जानते हुए मर्यादा की है वह कालतः छिन्न है। द्रव्य को ले जाने का भाव भी कुछ अगीतार्थ मुनियों का मोह कर लोभवश यह निवृत्त हो जाने पर वह भावतः छिन्न है।
कहते हैं-सागारिक द्वारा अपरिगृहीत आहृतिका का ग्रहण पहला और चौथा भंग सागारिकपिंड नहीं है, परन्तु कल्पता है। प्रसंगदोष के कारण ये दोनों वर्ण्य हैं। दूसरा और तीसरा भंग ३६२६. आहडं होइ परस्स हत्थे, सागारिकपिंड होने के कारण नहीं कल्पता।
जंणीहडं वा वि परस्स दिन्नं । ३६२२.संकप्पियं वा अहवेगपासे,
तं सुत्तछंदेण वयंति केई, सगारिदि8 अमुगं तु वेलं।
कप्पं ण चे सुत्तमसुत्तमेवं॥ नियट्ट भावे नऽमुगं अदिट्ठा,
कुछेक आचार्यदशीय सोचते हैं जो आहृतक काले ण निद्देस अछिन्न भावे॥ (आहृतिका) शय्यातर के घर में ले जाया जा रहा है, वह विशेष द्रव्य ले जाने का संकल्प किया अथवा एक दूसरे के हाथ में है-यह प्रस्तुत सूत्र का विषय है। जो पार्श्व में रख दिया यह द्रव्यतः छिन्न है। सागारिक ने अपने आहतक शय्यातर के घर से निष्काशित है और जो दूसरे घर लाते हुए उसे देख लिया, वह क्षेत्रतः छिन्न है। अमुक के हाथ में है, इससे वक्ष्यमाणसूत्र गृहीत है। इस प्रकार का वेला में यह नेतव्य है-यह कालतः छिन्न है और ले जाने द्रव्य सूत्र के अभिप्राय से कल्प्य है। यदि इसे कल्प्य न का भाव निवृत्त हो जाना भावतः छिन्न है। ले जाने वाले मानें तो सूत्र असूत्र हो जाएगा, अप्रमाण हो जाएगा। इसके द्रव्य का न संकल्प किया और न उसे पृथक् रखा, यह उत्तर में सूरी कहते हैं
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