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बृहत्कल्पभाष्यम्
(३) श्लोक-श्लाघा से-जैसे श्रमण, संयत।
विभाजन कर, अक्षरविधिज्ञ पुरुष जो भूमी जिसके योग्य (४) संयोग से-जैसे राजा का श्वसुर।
होती है, उन-उनको देने के लिए उंडिका अर्थात अक्षरसहित (५) समीपता से-जैसे पहाड़ के समीप नगर।
मुद्रिका स्थापित कर दी जाती है। फिर जो जिसकी भूमी है, (६) संव्यूह से-जैसे तरंगवतीकार।
वह अपने स्थान का शोधन करता है। फिर भूमी का खनन (७) ऐश्वर्य से-जैसे राजा।
कर, ईंट के टुकड़े डालकर कुट्टन होता है। पीठिका का (८) अपत्य से-जैसे तीर्थंकरमाता, राजमाता।
निर्माण कर उस पर प्रासाद खड़ा किया जाता है। प्रासाद को धातुकृत पदार्थ-जैसे भू सत्तायां-परस्मैपद।
रत्नों से परिपूरित कर अर्थात् उसकी पूरी सजावट कर, फिर नैरुक्त पदार्थ जैसे मह्यां शेते-महिषः ।
उसमें सुखपूर्वक निवास किया जाता है। ३२७. कारगकओ चउत्थे, मिस्सपदे मिस्सओ चउत्थो उ। यह दृष्टांत है। इसका अर्थोपनय इस प्रकार है--भूमीग्रहण
सामासिओ सत्तविहो, हवइ पयत्थो उ नायव्वो॥ स्थानीय है पुरुषग्रहण अर्थात् पुरुष की परीक्षा कर शुद्ध
चतुर्थ अर्थात् आख्यातिक पद का पदार्थ 'कारककृत।। पुरुष को प्रव्रज्यादान देना। मिश्रपद में मिश्रपदार्थ। इनमें जो सामासिक पदार्थ है, वह उक्त प्रकार से नगरस्थानीय है संयम। उंडिकास्थानीय है सात प्रकार का ज्ञातव्य है।
रजोहरण आदि मुनिलिंग। फिर मिथ्यात्व, अज्ञान आदि ३२८. अक्खेवो सुत्तदोसा, पुच्छा वा तत्तो निन्नयपसिद्धी। कचवर-स्थानीय का शोधन। मिथ्यात्व का उत्खनन,
आयपया दो सुत्ते, उवरिल्ला तिन्नि अत्थम्मि।। सम्यक्त्वरूपी द्रुघण से कुट्टन, फिर ईंटस्थापनसदृश व्रतों का आक्षेप का अर्थ है-सूत्रदोष अथवा पृच्छा। निर्णयप्रसिद्धि स्वीकरण, तदनन्तर आवश्यक आदि से सूत्रकृत पर्यन्त का अर्थ है-प्रत्यवस्थान (व्याख्या का एक लक्षण)। सूत्र, पीठिका होती है। पीठिका का निर्माण हो जाने पर, प्रासादपद आदि पांचों में प्रथम दो अर्थात् संहिता, और पद-ये स्थानीय कल्प और व्यवहार दिए जाते हैं। उनके जो अर्थपद सूत्र के अंतर्गत तथा शेष पदार्थ आदि तीन पद अर्थ के हैं वे रत्नतुल्य हैं। अंतर्गत हैं।
३३४. सेलघण कुडग चालिणि, परिपूणग हंस महिस मेसे य। ३२९. अत्थवसा हवइ पयं, अत्थो इच्छियवसेण विन्नेओ। मसग जलूग बिराली, जाहग गो भेरि आभीरी।।
इच्छा य पकरणवसा, पगरणओ निच्छओ सत्थे।। शैलघन', कुटक, चालिनी, परिपूणक, हंस, महिष, मेष, अर्थ का वशवर्ती होता है पद। अर्थ इच्छा के वश में मशक, जलौका, बिडाली, जाहक, गौ, भेरी तथा आभीरी-ये जानना चाहिए। इच्छा प्रकरण के वश में होती है। प्रकरण का चौदह दृष्टांत कल्प-व्यवहार को ग्रहण-योग्य परिषद् की निश्चय शास्त्र के अनुसार होता है।
परीक्षा के लिए हैं। इनका विवरण आगे ३६१ तक की ३३०. उंडिय भूमी पेढिय, पुरिसग्गहणं तु पढमओ काउं। गाथाओं में।
एवं परिक्खियम्मी, दायव्वं वा न वा पुरिसे॥ ३३५. उल्लेऊण न सक्का, गज्जइ इय मुग्गसेलओ रन्ने। उंडिका, भूमीशोधन तदनन्तर पीठिका। इसी प्रकार सर्व- तं संवट्टगमेहो, सोउं तस्सोवरिं पडइ॥ प्रथम पुरुष का ग्रहण और परीक्षा। परीक्षा कर लेने पर उस ३३६. रविउ त्ति ठिओ मेहो, उल्लो य न व त्ति गज्जइ य सेलो। पुरुष को (सूत्रवाचन) देना या नहीं यह निर्णय करे। (इसी सेलसमं गाहिस्सं, निव्विज्जइ गाहगो एवं ।। गाथा का विवरण आगे की तीन गाथाओं में।)
एक बार अरण्य में मुद्गशैल पर्वत ने यह गर्जना की कि ३३१. अभिनवनगरनिवेसे, समभूमिविरेयणऽक्खरविहन्नू। मुझे कोई आर्द्र नहीं कर सकता। संवर्तकमेघ ने वह सुना और
पाडेइ उंडियाओ, जा जस्स सठाणसोहणया। वह सात दिन-रात मुसलाधार वर्षा करता रहा। तदनन्तर ३३२. खणणं कोट्टण ठवणं, पेढं पासाय रयण सुहवासो। 'मैंने इसे आर्द्र कर दिया है, यह सोचकर संवर्तकमेघ ने वर्षा
इय संजम नगरुंडिय, लिंग मिच्छत्तसोहणयं॥ रोक दी।' मुद्गशैल बोला-क्या आर्द्र कर दिया या नहीं? कुछ ३३३. वय इट्टगठवणनिभा, पेढं पुण होइ जाव सूयगडं। भी गीला नहीं हुआ।
पासाओ जहिं पगयं, रयणनिभा हुंति अत्थपया। इसी प्रकार जो व्यक्ति शैलसम शिष्य को 'मैं कुछ नए नगर का निर्माण करते समय सबसे पहले भूमी का सिखाऊंगा' यह सोचकर प्रयत्न करता है तो वह शिक्षक परीक्षण किया जाता है। तदनन्तर समभूमी का विरेचन- असफल ही होता है, उदासीन ही होता है। १. परिपूणको नाम येन घृतपूर्णयोग्यं पानं गाल्यते, तत्र सारो गलति कल्मषं तिष्ठति। (वृ. पृ. १०४)
२. कथा परिशिट नं. २७।
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