________________
पीठिका = ३३७. आयरिए सुत्तम्मि य, परिवाओ सुत्त-अत्थपलिमंथो।
अण्णेसि पि य हाणी, पुट्ठा वि न दुद्धदा वंझा॥ जो आचार्य शैलसम शिष्य को सूत्र सिखाना चाहते है, उनका अपवाद होता और जो सूत्र सिखाया जाता है, उसकी भी निन्दा होती है। अयोग्य को सिखाने के प्रयत्न में स्वयं आचार्य के भी सूत्र और अर्थ का व्याघात होता है। सुनने वालों के भी सूत्र और अर्थ की हानि होती है। ऐसे शिष्यों को पढ़ाना व्यर्थ है। वंध्या गाय को सहलाने पर भी वह दूध नहीं देती। ३३८. वुढे वि दोणमेहे, न कण्हभोमाउ लोट्टए उदयं।
गहण-धरणासमत्थे, इय देयमछित्तिकारिम्मि॥ काली मिट्टी वाले प्रदेश में द्रोणमेघ-मुसलाधार वर्षा होने पर भी वह पानी अन्यत्र नहीं जाता। मिट्टी उसको शोष लेती है। इसी प्रकार ग्रहण और धारण समर्थ शिष्य सूत्र का अव्यवच्छित्तिकारक होता है। उसको सूत्र देना चाहिए। ३३९. भाविय इयरे य कुडा, पसत्थ-अपसत्थभाविया दुविहा।
पुप्फाईहिं पसत्था, सुर-तिल्लाईहिं अपसत्था॥ ३४०. वम्मा य अवम्मा वि य, पसत्थवम्मा य हुंति अग्गिज्झा।
अपसत्थअवम्मा वि य, तप्पडिवक्खा भवे गिज्झा॥ कुट-घट दो प्रकार के होते हैं-भावित और अभावित। जो भावित हैं, उनके दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावित और अप्रशस्त- भावित। जो पुष्प, कपूर आदि से भावित होते हैं, वे प्रशस्तभावित हैं। जो मदिरा, तैल आदि से भावित होते हैं, वे अप्रशस्तभावित हैं। प्रशस्तभावित के दो प्रकार हैं-वाम्य और अवाम्य। जो प्रशस्तभावित वाम्य हैं वे तथा जो अप्रशस्तभावित अवाम्य हैं-ये दोनों प्रकार के कुट अग्राह्य हैं। जो उनके प्रतिपक्ष हैं अर्थात् प्रशस्तभावित अवाम्य तथा अप्रशस्तभावित वाम्य हैं ये दोनों प्रकार के कुट ग्राह्य हैं। ये द्रव्यकुट हैं। ३४१. कुप्पवण-ओसन्नेहिं भाविया एवमेव भावकुडा।
संविग्गेहिं पसत्था, वम्माऽवम्मा य तह चेव॥ १. वाम्य-जिस भाव से भावित हैं, उसको छोड़ने में समर्थ।
अवाम्य-जिस भाव से भावित हैं, उसको छोड़ने में असमर्थ। २. अवाम्य वे होते हैं जो दीर्घकाल तक भी उस भाव का परित्याग नहीं
करते और कालान्तर में सहयोग पाकर पाप-परायण हो जाते हैं। ग्राह्य का अर्थ है-कथनयोग्य और अग्राह्य का अर्थ है-अकथनीय।
अर्थात् ग्राह्य को सूत्र दिया जा सकता है, अग्राह्य को नहीं। ३. छिद्रकुट-वह घट जिसके तल में छिद्र हो। उससे सारा पानी नीचे से निकल जाता है। खंडकुट-वह घट जिसके घटकर्ण टूटे हुए हो। उसमें थोड़ा पानी समाता है। बोटकुट-वह घट जिसके एक पार्श्व का कपाल भिन्न है। उसमें थोड़े से ज्यादा पानी ठहरता है। सकलकुट
भावकुट दो प्रकार के होते हैं-भावित और अभावित। भावित के दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावित और अप्रशस्तभावित। जो शिष्य कुप्रवचनों से भावित होते हैं वे अप्रशस्तभावित हैं। जो शिष्य संविग्नों से भावित होते हैं वे प्रशस्तभावित हैं। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-वाम्य और अवाम्य। जो प्रशस्तभावित वाम्य हैं तथा जो अप्रशस्तभावित अवाम्य हैं ये अग्राह्य हैं जो प्रशस्तभावित अवाम्य हैं तथा जो अप्रशस्तभावित वाम्य हैं-ये ग्राह्य हैं। ३४२. जे पुण अभाविया ते, चउव्विहा अहविमो गमो अन्नो।
छिड्डकुड खंड बोडे, सगले य परूवणा तेसिं॥ जो कुट तैल आदि से अभावित हैं वे निर्विवादरूप से ग्राह्य हैं। अथवा यह अन्य गम-विकल्प है। द्रव्यकुट के चार प्रकार हैं-छिद्रकुट, खंडकुट, बोडकुट और सकलकुट। इनकी प्ररूपणा इस प्रकार है। ३४३. सेले य छिद्द चालिणि, मिहो कहा सोउ उठ्ठियाणं तु।
छिड्डाऽऽह तत्थ विट्ठो, सरिंसु सुमरामि नेयाणिं॥ ३४४. एगेण विसइ बीएण नीइ कन्नेण चालिणी आह।
धन्न त्थ आह सेलो, जं पविसइ नीइ वा तुज्झं।। मुगशैलसमान, छिद्रकुटसमान तथा चालनीसमान शिष्य व्याख्यान सुनकर उठे और परस्पर चर्चा करने लगे-आर्यों ! बोलो, किसने क्या सुना? छिद्रकुटसमान शिष्य बोला-'मैं जब तक मंडली में बैठा था, तब तक जो सुना वह स्मृति में था, परंतु अब कुछ भी स्मृति में नहीं है।' चालनीसमान शिष्य ने कहा-'आचार्य का कथन मेरे एक कान से प्रविष्ट होता है और दूसरे कान से बाहर निकल जाता है।' शैलसमान शिष्य ने कहा-'तुम धन्य हो, एक कान से वचन प्रविष्ट होते हैं और दूसरे से निकल जाते हैं, मैं कितना मंदभाग्य हूं कि मूलतः मेरे कान में कुछ भी प्रविष्ट ही नहीं होता।' ३४५. तावसखउरकढिणयं, चालणिपडिवक्खु न सवइ दवं पि।
परिपूणगं पिव गुणा, गलंति दोसा य चिट्ठति॥ पूर्ण घड़ा। उसमें जितना डाला जाता है, वह ठहर जाता है। इसी प्रकार शिष्य भी चार प्रकार के होते हैं• छिद्रकुटसमान-जितना कहा जाता है, उसे स्मृति में रखता है,
परंतु वहां से उठते ही भूल जाता है। • खंडकुटसमान-कहा हुआ सारा ग्रहण नहीं करता, कम ग्रहण
करता है। • बोटकुटसमान-थोड़ा याद रख पाता है। • सकलकुटसमान-जितना कहा जाता है, सारा स्मृति में रखता है। इनमें से सकलकुटसमान शिष्य ही कथनीय है और वही अव्यवच्छित्तिकारक होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org