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बृहत्कल्पभाष्यम्
चालनी का प्रतिपक्ष है-तापस का भाजन 'खउर'। वह ३५०. मसगो व्व तदुं जच्चाइएहिं निच्छुब्भई कुसीसो वि। बिल्वरस तथा भल्लातकरस से लिप्त होने के कारण कठिन जलुगा व अदूमिंतो, पियइ सुसीसो वि सुयनाणं॥ हो जाता है। फिर उससे द्रव पदार्थ भी नहीं निकलता, सारा जो कुशिष्य जातिमद आदि के द्वारा दूसरों की अवहेलना उसीमें ठहर जाता है। ऐसे शिष्य को सूत्रदान दिया जा करता है, पीड़ित करता है, वह पीड़ित करने वाले मच्छर की सकता है।
भांति निष्कासित कर दिया जाता है, उड़ा दिया जाता है। वह परिपूणक में साररूप गुण नीचे निकल जाते हैं और दोष अशिक्षणीय होता है। उसमें रह जाते हैं। परिपूणक में डाले हुए घेवर के घोल का मशक का प्रतिपक्ष उदाहरण है जलौका। जैसे जलौका सार-सार नीचे निकल जाता है और कल्मष उसमें रह जाता। शरीर पर लगकर रुधिर पीती है, परन्तु पीड़ा नहीं करती, है। परिपूणकसमान शिष्य में भी गुण नीचे निकल जाते हैं उसी प्रकार सुशिष्य भी आचार्य को संतापित न करता हुआ और दोष रह जाते हैं। वह शिक्षणीय नहीं होता।
श्रुतज्ञान ग्रहण कर लेता है। ३४६. सव्वन्नुप्पामन्ना, दोसा उ न हुंति जिणमये के वि। ३५१. छड्डेउं भूमीए, खीरं किल पिवइ मुद्ध मज्जारी।
जं अणुवउत्तकहणं, अपत्तमासज्ज व हवंति॥ परिसुट्टियाण पासे, सिक्खइ एवं विणयभंसी। सर्वज्ञप्रामाण्यात सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित होने के कारण मूर्ख मार्जारी दूध को जमीन पर बिखेर कर, फिर उसे जिनमत में कोई दोष नहीं होते। परन्तु अनुपयुक्त आचार्य पीती है, वैसे ही अविनीत शिष्य मंडली में श्रुतश्रवण नहीं द्वारा कथित होने पर अथवा अपात्र श्रोता को पाकर गुण भी करता परंतु परिषद् के उठ जाने पर वह कुछेक श्रोताओं से दोष हो जाते हैं। (जैसे सर्पमुख में गया हुआ दूध भी विष बन श्रुतग्रहण करता है। वह अवाचनीय होता है। जाता है।
३५२. पाउं थोवं थोवं, खीरं पासाणि जाहगो लिहइ। ३४७. अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि। एमेव जियं काउं, पुच्छइ मइमं न खेएइ॥
हंसो मोत्तूण जलं, आपियइ पयं तह सुसीसो॥ उद्दिलाव थोड़ा-थोड़ा दूध पीता है और अपने मुंह के ___ हंस की जिह्वा अम्ल होती है। ज्योंही पानी मिले हुए दूध दोनों पार्यों में लगे दूध को चाटता है। इसी प्रकार जो में हंस चोंच डालता है, जिह्वा की अम्लता के कारण दूध की मतिमान् शिष्य पूर्वगृहीत श्रुत को परिचित कर फिर पृच्छा कूचिका-गुच्छे बन जाते हैं। हंस कुचिकाभूत दूध को पी करता है, परन्तु गुरु को खिन्न नहीं करता, वह वाचनीय लेता है और पानी को छोड़ देता है। वैसे ही सुशिष्य वह होता है। होता है जो गुणों को ग्रहण कर लेता है और दोषों को छोड़ ३५३. अन्नो दुन्झिहि कल्लं, निरत्थयं किं वहामि से चारिं। देता है। ऐसा शिष्य शिक्षणीय होता है।
चउवरणगवी य मया, अवण्ण हाणी य मरुयाणं ।। ३४८. सयमवि न पियइ महिसो, न य जूहं पिबइ लोलियं उदय। ३५४.मा णे हुज्ज अवन्नो, गोवज्झा मा पुणो य न दलिज्जा।
विग्गह-विकहाहिं तहा, अथक्कपुच्छाहिं ये कुसीसो॥ वयमवि दोन्झामो पुण, अणुग्गहो अन्नदूढे वि॥ जैसे पानी पीने के लिए तालाब में प्रविष्ट महिष न स्वयं ३५५. सीसा पडिच्छगाणं, भरो त्ति ते वि य हु सीसगभरो त्ति। उस कर्दमीभूत पानी को पीता है और न महिषयूथ उस न करिति सुत्तहाणी, अन्नत्थ वि दुल्लहं तेसिं॥ विलोडित पानी को पी पाता है। इसी प्रकार विग्रह और एक गांव में चार चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। एक गृहस्थ ने विकथाओं में फंसा हुआ अथवा अप्रासंगिक पृच्छाओं उनको एक गाय दान में दी। वे बारी-बारी से उसको दुह वाला शिष्य कुशिष्य होता है। वह अकथनीय अर्थात अयोग्य कर दूध ले लेते थे। एक दिन जिस ब्राह्मण की गाय दुहने होता है।
की बारी थी, उसने सोचा कल दूसरा ब्राह्मण इसको दुह ३४९. अवि गोपयम्मि वि पिबे, सुढिओ तणुयत्तणेण तुंडस्स। कर दूध का लाभ प्राप्त करेगा। तो फिर मैं आज निरर्थक ही
न करेइ कलुस तोयं, मेसो एवं सुसीसो वि॥ गाय के चारा-पानी का भार क्यों वहन करूं? उसने गाय महिष का प्रतिपक्ष है मेष। मेष-एडक गोष्पद में एकत्रित को दुहा और उसे वैसे ही छोड़ दिया। सभी ने यही सोचा। अल्पतम पानी को भी जानु के बल बैठकर पूर्ण जागरूकता गाय बिना चारा-पानी के मर गई। ब्राह्मणों की निन्दा हुई से पानी को कलुषित किए बिना अपने मुंह को तनु बनाकर और दान-हानि हुई। इसी प्रकार एक गृहस्थ ने अन्य चार पी लेता है। मेष तुल्य होता है सुशिष्य जो आचार्य को ब्राह्मणों को गाय दान में दी। वे बारी-बारी से उसे दुहते उत्तेजित किए बिना शास्वरहस्य ग्रहण कर लेता है।
और प्रत्येक ब्राह्मण गाय को पूरा चारा-पानी देता। सभी Jain Education International
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