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________________ पीठिका यह सोचते हमारी यह निन्दा न हो कि ये गो घातक हैं और आगे भी गोदान बंद कर दें। पुनः यह भी बात है कि हम अपनी बारी से आगे भी गाय को दुहते रहेंगे। दूसरा भी गाय को दुहता है और प्रभूत चारा-पानी देता है तो वह हम पर महान् अनुग्रह है। गाय मरी नहीं और वे चारों ब्राह्मण गाय के दूध से लाभान्वित होते रहे। इसी प्रकार आचार्य के पास शिष्य और प्रतीच्छक (अन्य गणों से समागत शिष्य) दोनों थे। शिष्य सोचते - हम ध्रुव हैं। प्रतीच्छक आए हुए हैं। ये कुछ समय पश्चात् चले जाएंगे। इसलिए आचार्य का प्रत्युपेक्षण, पाव-प्रक्षालन, मिक्षा आदि ये करेंगे। शिष्यों ने ये काम छोड़ दिए। प्रतीच्छकों ने सोचा- आचार्य के सारे कार्य करना शिष्यों का दायित्व है। हमें तो सूत्रार्थ ग्रहण करने में लगे रहना है। दोनों ने आचार्य की सेवा-शुश्रूषा छोड़ दी आचार्य अपना कार्य स्वयं करते। वे रोगग्रस्त हो गए। अब सबके लिए सूत्र की हानि हो गई। अन्यत्र गच्छान्तर में भी उनके लिए श्रुतज्ञान दुर्लभ हो गया। ३५६. कोमुझ्या ( तह) संगामि वा व दुम्भूश्या य भेरीओ कण्हस्स आसि तइया, असिवोवसमी चउत्थी उ॥ कृष्ण के पास तीन भेरियां थीं कौमुदिकी, संग्रामिकी और दुर्भूतिका । चौथी भेरी का नाम था- अशिवोपशमनी । ' ३५७. सक्कपसंसा गुणगाहि केसवा नेमिवंद सुणदंता । आसरयणस्स हरणं, हरणं, कुमारभंगे व पुययुद्धं ॥ ३५८. नेहि जितो मि त्ति अहं, असिवोवसमीऍ संपयाणं च । छम्मासिय घोसणया, पसमेति न जायए अन्नो ॥ ३५९. आगंतु वाहिखोभो, महिड्डि मोल्लेण कंथ डंडणया । अट्ठम आराहण अन्न भेरि अन्नस्स ठेवणं च ॥ शक्र देवसभा को संबोधित कर बोला- 'केशव गुणग्राही है। नीच व्यक्तियों के साथ युद्ध नहीं करता। एक देव इस तथ्य को झुठलाने के लिए कटिबद्ध हुआ। एक बार केशव अरिष्टनेमि को वंदन करने निकला। वह देव कुत्ते का रूप बना कर मृतरूप में मार्ग में गिर गया। उससे भयंकर दुर्गंध आ रही थी। सभी लोग नाक पर कपड़ा देकर अन्य मार्ग पर गुजरे। कृष्ण कुत्ते के निकट आकर बोले- देखो ! इस कुत्ते के दांत कितने धवल रूप में शोभित हो रहे हैं? कितने सुन्दर हैं? देव ने अश्वरत्न चुरा लिया। राजकुमार युद्ध करने गए । पराजित हो गए। केशव स्वयं युद्ध करने गए। ज्ञात हुआ १. प्रथम तीनों भेरियां गोशीर्षचंदन से निर्मित थीं और वे देवताधिष्ठित थीं। चौथी भेरी-अशिवोपशमनी का यह गुण था कि वह जहां बजाई Jain Education International ३९ कि अश्व का अपहरण करने वाला नीचजातीय है। केशव ने उसके साथ युद्ध करने का प्रतिषेध कर दिया। देव ने अश्व रत्न लाकर दे दिया और कहा-मैं हारा, आप जीते। तब वह केशव को अशिवोपशमनी भेरी उपहृत कर चला गया। उस भेरी का यह प्रभाव था - छह-छह मास के अंतराल से उसे बजाया जाए तो पूर्वोत्पन्न सारे रोग उपशांत हो जाते हैं और छह मास पर्यन्त रोग वहां उत्पन्न नहीं होते। एक बार एक महर्द्धिक वणिक वहां आया वह शिरोव्याधि से क्षुब्ध था । वैद्य ने गोशीर्षचंदन का लेप करने के लिए कहा। अन्यत्र प्राप्त न होने पर उसने भेरीपाल को बहुमूल्य देकर मेरी से एक टुकड़ा खरीद लिया। खंड-खंड किए जाने पर वह भेरी कंथा मात्र रह गई। अब उस भेरी का प्रभाव जाता रहा। केशव को ज्ञात हुआ। भेरी को देखा और उस भेरीपाल को दंडित कर उसे हटा दिया। पुनः केशव ने तेले की तपस्या कर देवता की आराधना कर अन्य भेरी प्राप्त कर दूसरे भेरीपाल को उसकी रक्षा के लिए नियुक्त किया। इसी प्रकार जो शिष्य सूत्र और अर्थ को कंधा कर देता है, उसे सूत्रार्थं नहीं देना चाहिए। ३६०. मुक्कं तथा अगहिए, दुपरिग्गहियं कयं तया कलहो । पिट्टणय इयर विक्किय, गएसु चोरेहि ऊणऽग्घो ॥ ३६१ मा निण्हव इय दाडं, उवजुंजिय देहि किं विचितेसि। נ विच्चमेलणदाणे, किलिस्ससी तं च हं चेव ॥ एक आभीरी घृतघटों से शकट भर कर नगर में आई । उसका पति शकट पर खड़ा खड़ा आभीरी को घृतघट पकड़ाने लगा। संयोगवश एक घट आभीरी के हाथ में न आकर जमीन पर गिरकर फूट गया। आभीरी बोली- मैंने घट को पकड़ा नहीं और तुमने उसे छोड़ दिया। आभीर बोलानहीं, तूने उसे भलीभांति नहीं पकड़ा, इसलिए वह भूमी पर गिर गया। दोनों में कलह हुआ। आभीर ने अभीरी को पीटा। दूसरे घीविक्रेता घी बेचकर चले गए। इनको कम मूल्य में घी बेचना पड़ा और घर लौटते समय चोरों ने उन्हें अकेला पाकर लूट लिया। एक बार एक शिष्य सूत्र के एक ही आलापक को व्यत्याम्रेडित कर रहा था, बार-बार बोल रहा था। आचार्य ने कहा- इस प्रकार मत बोलो। शिष्य ने कहा- 'आपने ऐसे ही सिखाया था।' आचार्य बोले- नहीं । शिष्य ने तब कहा - 'आप अपनी बात को छुपाए नहीं। स्वयं ही इस प्रकार आलापक जाती है वहां छह मास तक सभी रोग उपशांत रहते और जो उसके शब्द को सुनता है वह भी रोगमुक्त हो जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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