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पहला उद्देशक = है तथा भूख से अनेक मुनियों के मरने से तीर्थ का व्यवच्छेद हो जाता है। ३११९.ओमोदरियागमणे, मग्गे असती य पंथे जयणाए।
परिपुच्छिऊण गमणं, चउव्विहं रायदुटुं च॥ अवमौदरिका में जाने का अवसर आए तो पहले मार्ग से जाना चाहिए। उसके अभाव में पूछ कर पथ यतनापूर्वक गमन करे। राजा के द्विष्ट होने के चार कारण हैं३१२०.ओरोहधरिसणाए, अब्भरहितसेहदिक्खणाए वा।
अहिमर अणिट्ठदरिसण, वुग्गाहणया अणायारे॥ (१) किसी लिंगस्थ ने उसके अतःपुर की धर्षणा की है। (२) अभ्यर्हित राजा, अमात्य आदि का पुत्र दीक्षित हुआ
(३) साधुवेश में कुछ अभिमर (चपेटा मार कर प्राण लेने
वाले?) प्रवेश कर गए हैं। (४) साधुओं के दर्शन अनर्थकारी होते हैं, इस प्रकार
अमात्य आदि द्वारा व्युद्ग्राहित हो जाने पर अथवा साधु को अनाचार की प्रतिसेवना करते हुए देख
लेने पर-ये कारण बनते हैं। ३१२१.निव्विसउ त्ति य पढमो, बितियो मा देह भत्त-पाणं से।
ततितो उवकरणहरो, जीय चरित्तस्स वा भेतो।। इस प्रकार प्रद्विष्ट होकर राजा चार प्रकार का दंड प्रयुक्त करता है
१. देश से निकाल देना। २. भक्तपान देने का निषेध करना। ३. उपकरणों का हरण कर लेना अर्थात् उपकरण देने
का निषेध करना। ४. मार डालना या चारित्र का भेद कर देना। ३१२२.गुरुगा आणालोवे, बलियतरं कुप्पे पढमए दोसो।
__गिण्हत देंतदोसा, बितिय-तिए चरिमे दुविह भेतो॥
देश निष्काशन की आज्ञा का लोप करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। इस आज्ञा के उल्लंघन से राजा अत्यधिक कुपित हो जाता है। यह प्रथम आज्ञा का लोप संबंधी दोष है। दूसरी
और तीसरी आज्ञा का लोप होने पर अर्थात् भक्तपान और उपकरण लेने वालों तथा इनको देने वाले गृहस्थों के ग्रहणआकर्षण आदि दोष होते हैं तथा चौथे विकल्प में जीव और चारित्र-दोनों का भेद हो जाता है। ३१२३.सच्छंदेण य गमणं, भिक्खे भत्तट्ठणे य वसहीए। ___ दारे व ठितो संभति, एगट्ठ ठितो व आणावे॥
देश निष्काशन की आज्ञा प्राप्त कर मुनि वहां से स्वच्छंद गमन करे परंतु भैक्ष, भक्तार्थन तथा वसति विषयक
सामाचारी का पालन करे। ग्रामद्वार पर स्थित अथवा सभादेवकुल में स्थित कोई साधुओं को रोकता है और उनको आहार करने के लिए स्वयं के पास आज्ञापित करता है तो वहां यह यतना करनी चाहिए। ३१२४.सच्छदेण उ गमणं, सयं व सत्थेण वा वि पुव्वुत्तं।
तत्थुग्गमादिसुद्धं, असंथरे वा पणगहाणी॥ स्वच्छंद गमन की स्थिति आने पर मुनि स्वयं अकेला या सार्थ के साथ प्रस्थान करे तथा पूर्वोक्त (गाथा ३१०५. ३११०) यतना करे। उद्गमादि से शुद्ध भक्त-पान ग्रहण करे, अपर्याप्त होने पर पंचक परिहानि से भक्त-पान प्राप्त करे। ३१२५.तिण्हेगयरे गमणे, एसणमादीसु होति जतियव्वं ।
भत्तद्गुण थंडिल्ले, असती वसहीए जं जत्थ।। __ आगे कहे जाने वाले तीन प्रकार के गमन में से किसी एक प्रकार के गमन में भी एषणा आदि में यतना करनी चाहिए। भक्तार्थन (भोजन करने की विधि). स्थंडिल विषयक तथा वसति के अभाव में, जहां अल्पतर दोष हो, उसका आचरण करे। ३१२६.सच्छंदओ य एक्कं, बितियं अण्णत्थ भोत्तिहं एह।
ततिए भिक्खं घेत्तुं, इह भुंजह तीसु वी जतणा। तीन प्रकार के गमन-एक है-स्वच्छंदगमन, दूसरा हैराजपुरुष कहते हैं-अन्यत्र कहीं भी भोजन कर यहां आ जाना, तीसरा है-भिक्षा लेकर यहां आकर भोजन करना-इन तीनों में भैक्ष आदि की यतना करनी चाहिए। ३१२७.सबिइज्जए व मुंचति, आणावेत्तुं व चोल्लए देति।
अम्हुग्गमाइसुद्धं, अणुसट्ठि अणिच्छे जं अंतं॥ राजपुरुष भिक्षा के लिए जाने वाले साधुओं के साथसाथ घूमता है अथवा वह राजपुरुष भोजन देता है तब मुनि उससे कहे-हमें उद्गम आदि से शुद्ध आहार लेना कल्पता है। यदि वह साधुओं को मुक्त कर देता है तो वे भिक्षा के लिए चले जाते हैं। मुक्त न करने पर अनुशिष्टि करनी चाहिए। न मानें तो उसके द्वारा लाया हुआ अन्त-प्रान्त ले लेना चाहिए। ३१२८.पुव्वं व उवक्खडियं, खीरादी वा अणिच्छे जं दिति।
कमढग भुत्ते सण्णा, कुरुकुय दुविहेण वि दवेण॥ राजपुरुष जो भोजन लाया है उसमें जो दूध-दही आदि पूर्व उपस्कृत हैं, वे ले लें। यदि वह उन्हें देना न चाहे तो वह जो दे, उसीका भोजन कर ले।' 'कमढक' में भोजन कर ले। भोजन कर लेने तथा संज्ञा के व्युत्सर्जन के पश्चात् दोनों प्रकार के द्रव (सचित्त या अचित्त पानी) से कुरुकुच हाथ आदि प्रक्षालित कर ले।
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