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३१२९. बिए वि होइ जयणा, भत्ते पाणे अलग्भमाणम्मि | दोसीण तक्क पिंडी, समादी जतितव्वं ॥ राजविष्ट होने पर दूसरी आज्ञा जो भक्त पान निवारण की है, उसकी यतना यह है-भक्त-पान की प्राप्ति न होने पर बासी भोजन, तक्र तथा पिण्याकपिंडी इनकी एषणा में यतना करनी चाहिए।
३१३०. पुराणादि पण्णवेडं, णिसिं पि गीतत्ये होति गहणं तु ।
अग्गीते दिवा गहणं, सुण्णघरे वा इमेहिं वा ॥ यदि गच्छ में सभी गीतार्थ हों तो पुराने अर्थात् पश्चात्कृत या श्रावक आदि हो तो उनको प्रज्ञापित कर रात्री में भी वह लिया जा सकता है। अगीतार्थ से मिश्र होने पर दिन में ग्रहण करे या शून्यगृह, देवकुल आदि में स्थापित ग्रहण करे ।
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३१३१. उंबर कोटिंबेसु व, देवउले वा णिवेदणं रण्णो ।
कतकरणे करणं वा असती नंदी दुविहदव्वे ॥ देवकुल आदि में उदुंबर की अर्चा के लिए कूर आदि लाया हुआ, कोहिम्ब वह स्थान जहां गोभक्त दिया जाता है, वहां स्थापित गोभक्त, अरण्य के वेवकुल में स्थापित बलि आदि ले। राजा को अपनी स्थिति निवेदित करते रहें। वह शांत न हो तो कृतकरण मुनि करण करे, राजा को बांध कर उस पर शासन करे। उसके अभाव में नंदी पात्र में दोनों प्रकार के द्रव्यों (प्रासुक अप्रासुक, परीत अनंत, परिवासित अपरिवासित, एषणीय अनेषणीय) को ग्रहण करे। ३१३२. ए वि होति जतणा वत्थे पादे अलम्भमाणम्मि ।
उच्छुद्ध विप्पइण्णे, विप्पण्णे, एसणमादीसु जतितव्यं ॥ तीसरे दंड विषयक यह यतना है-वस्त्र, पात्र की प्राप्ति न होने पर परित्यक्त या उकरडी पर पड़े हुए ले। इनकी एषणा आदि में यतना करे।
३१३३. हिवसेसगाण असती,
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तण अगणी सिक्कगा व वागा वा ।
पेहुणचम्मरगहणं,
भत्तं तु पलास पाणिसु वा ॥
राजा ने वस्त्रों का अपहरण कर लिया। शेष कुछ भी नहीं रहा। उस स्थिति में मुनि तृण, अग्नि का सेवन करे। पात्रबंध के अभाव में सिक्कक, शण-वल्क आदि ग्रहण करे। रजोहरण के स्थान पर पेण मयूरपिच्छी काम में ले प्रस्तरण और प्रावरण के लिए चर्म ग्रहण करे। आहार आदि पलाशपत्रों या हाथ में ग्रहण करे।
३१३४. असई य लिंगकरणं, पण्णवणडा सयं व गहणड्डा । आगाढे कारणम्मिं जहेब हंसादिणं गहणं ॥
बृहत्कल्पभाष्यम्
राजा उपशांत न हो तो अन्यतीर्थिक का वेश धारण करे। यह परलिंग राजा को समझाने के लिए या स्वयं भक्तपान या वस्त्र आदि पाने के लिए किया जाता है। जैसे-आगाद कारण होने पर हंस आदि का तैल ग्रहण किया जाता है वैसे ही वस्त्र-पात्र आदि ग्रहण किए जाते हैं।
३१३५. विहम्मि भैरवम्मिं विज्ज निमित्ते व चुण्ण देवी य
सेट्ठिम्मि अमच्चम्मि य, एसणमादीसु जतितव्वं ॥ दो प्रकार के भयंकर आघात - स्वमरण या चारित्रभ्रंश उपस्थित होने पर राजा को विद्या, निमित्त, चूर्ण, देवता की आराधना से उपशांत करना चाहिए। यदि उपशांत न हो तो श्रेष्ठी, अमात्य आदि को प्रज्ञापित करना चाहिए। एषणा आदि में चलना करनी चाहिए।
३१३६. आगाढे अण्णलिंगं, कालक्खेवो व होति गमणं वा ।
कयकरणे करणं वा, पच्छायण थावरादीसु ॥ आगाढ़ कारण में अन्यलिंग से कालक्षेप करे, दूसरे देश में गमन न करे। जो कृतकरण मुनि हो वह करण का प्रयोग करे। उसके अभाव में स्थावर अर्थात् वन के वृक्षों में दिनभर छुपा रहे और रात्री में विहरण करे।
३१३७. बोहिय-मिच्छादिभए, एमेव य गम्ममाण जतणाए ।
दोvesट्ठा व गिलाणे, णाणादट्ठा व गम्मंते ॥ बोधिक मालवदेश के स्तेन, म्लेच्छ आदि का भय हो तो देशान्तर जाते हुए उसी प्रकार अर्थात् अशिव आदि द्वारवत् यतना करे ग्लान हो तो वैद्य और औषधि दोनों के लिए गमन किया जा सकता है। अथवा ज्ञान आदि के लिए गमन होता है।
३१३८. एगापनं च सता, वीसं चद्धाणणिग्गमा गया।
एत्तो एक्कम्मिय, सतग्गसो होइ जतणाओ ॥ अध्वनिर्गमन के ५१२० भंग होते हैं (देखें ३०८२३०८५)। इनके प्रत्येक भंग में शताग्रशः यतनाएं होती हैं। ३१३९. दुविहाऽवाता उ विहे बुत्ता ते होज्ज संखडीए तु । तत्थ दिया विन कप्पति, किमु रातिं एस संबंधो ॥ अध्वनिर्गत मुनि के मार्ग में दो प्रकार के अपाय (संयमआत्मविराधनारूप) होते हैं संखडी में जाते समय भी ये ही अपाय होते हैं। उसमें जाना दिन में भी नहीं कल्पता तो फिर रात्री में कैसे ? यह पूर्व गाथा से संबंध है।
३१४०. संखंडिज्जति जहिं, आऊणि जियाण संखडी स खलु ।
तप्पडिताए ण कप्पति, अण्णत्थ गते सिया गमणं ॥ संखडी वह है जहां जीवों के आयुष्य का खंड खंड कर दिया जाता है अर्थात् जहां प्रचुर जीवों का घात होता है वह है संखडी संखडी में जाने की प्रतिज्ञा से संखडी में जाना नहीं
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