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पहला उद्देशक कल्पता। अन्यकार्य के लिए संखडी वाले ग्राम में जाने पर ३१४६.सव्वेसि गमणे गुरुगा, आयरियअवारणे भवे गुरुगा। संखडी में गमन हो सकता है।
___ वसभे गीता-ऽगीए, लहुगा गुरुगो य लहुगो य॥ ३१४१.राओ व दिवसतो वा, संखडिगमणे हवंतऽणुग्घाया। यदि सभी साधु संखडी में जाते हैं तो सबको चतुर्गुरु
संखडि एगमणेगा, दिवसेहिं तहेव पुरिसेहिं॥ और आचार्य यदि उनकी वर्जना नहीं करते हैं तो उनको भी रात या दिन में संखडी में गमन करने पर चार अनुद्घात चतुर्गुरु, वृषभ यदि वर्जना नहीं करते तो चतुर्लघु, गीतार्थ का प्रायश्चित्त आता है। संखडी दिवस और पुरुषों की यदि भिक्षु की वर्जना न करे तो गुरु मास और अगीतार्थ अपेक्षा से एक अथवा अनेक होती है।
वर्जना न करे तो लघुमास का प्रायश्चित्त है। ३१४२.एगो एगदिवसियं, एगोऽणेगाहियं व कुज्जाहि। ३१४७.एगस्स अणेगाण व, छदेण पहाविया तु ते संता। णेगा व एगदिवसिं, णेगा व अणेगदिवसं तु॥
वत्तमवत्तं सोच्चा, नियत्तणे होति चउगुरुगा। कोई एक व्यक्ति एक दैवसिकी संखडी करता है अथवा एक या अनेक के अभिप्राय से मुनि संखडी में गए और वह एक व्यक्ति अनेक दैवसिकी संखडी करता है। अनेक यह सुनकर की संखडी हो गई या होगी, वे निवर्तन कर देते पुरुष मिलकर एक दैवसिकी अथवा अनेक दैवसिकी संखडी हैं। उस स्थिति में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। करते हैं।
३१४८.वेलाए दिवसेहिं व, वत्तमवत्तं निसम्म पच्चेति। ३१४३.एक्केक्का सा दुविहा, पुरसंखडि पच्छसंखडी चेव।
होहिइ अमुगं दिवस, सा पुण अण्णम्मि पक्खम्मि॥ पुव्वा-ऽवरसूरम्मि, अहवा वि दिसाविभागणं॥ वेला या दिन से प्रतिबद्ध संखडी को सुनकर मुनि प्रत्येक संखडी के दो-दो प्रकार हैं--पुरःसंखडी, पश्चात्- प्रस्थित हुए, मार्ग में सुना कि संखडी समास हो गई अथवा संखडी। जो सूर्य के उदित होने पर की जाती है वह पुरः- और कभी होगी। यह सुनकर मुनि लौट आते हैं। अन्य ग्राम संखडी और जो सूर्य के अपरदिशा में जाने पर अर्थात् सायं में स्थित मुनियों ने सुना कि अमुक ग्राम में अमुक दिन की जाती है वह पश्चातसंखडी है। अथवा जिस ग्राम के पूर्व संखडी होगी। उस प्रतिनियत दिन में साधु संखडी में जाने के दिशा में की जाने वाली संखडी पूर्वसंखडी और पश्चिम दिशा लिए प्रस्थित हुए। मार्ग में सुना कि वह संखडी अमुक पक्ष में में की जाने वाली संखडी पश्चात्संखडी है।
अमुक दिन होगी, आज नहीं है। ३१४४.दुविहाए वि चउगुरू, विसेसिया भिक्खुमादिणं गमणे। ३१४९.आदेसो सेलपुरे, आदाणऽट्ठाहियाए महिमाए। . गुरुगादि व जा सपदं, पुरिसेगा-ऽणेग-दिण-रातो॥ तोसलिविसए विण्णवणट्ठा तह होति गमणं वा॥
दोनों प्रकार की संखडियों में गमन करने पर चतुर्गुरु का आदेश-दृष्टांत। शैलपुर, आदान, अष्टाह्निकमहिमा। प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त भिक्षु आदि के आधार पर तपः तोसलिविषय, विज्ञापना, वहां गमन। (विस्तार आगे की और काल से विशेषित होता है। चतुर्गुरु से प्रारंभ कर स्वपद गाथा में) पर्यन्त अर्थात् छेद तक ले जाना चाहिए। एक पुरुषकृत, ३१५०.सेलपुरे इसितलागम्मि होति अठ्ठाहिया महामहिमा। अनेक पुरुषकृत, एक दैवसिकी, अनेक दैवसिकी, रात या
कोंडलमेंढ पभासे, अब्बुय पादीणवाहम्मि॥ दिन के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान हैं। (वृत्ति में इसका ___तोसलिदेश के शैलपुरनगर में ऋषितडाग पर प्रतिवर्ष विस्तार है।)
अष्टदिवसीय महान् उत्सव होता था। लोग वहां संखडी ३१४५.आययरियगमणे गुरुगा,
करते थे। तथा कुंडलमेंठ नाम वाले वानमन्तर की यात्रा में वसभाण अवारणम्मि चउलहुगा। संखडी का आयोजन होता था। तथा प्रभास तीर्थ में या दोण्ह वि दोण्णि वि गुरुगा,
अर्बुदपर्वत की यात्रा पर संखडी की जाती थी। तथा सरस्वती वसभ बला तेतरे सुद्धा॥ नदी के पूर्वाभिमुख प्रवाह पर आनन्दपुर के वास्तव्य लोग आचार्य यदि संखडी में जाते हैं जो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त शरद् ऋतु में संखडी करते थे। (कोई शिष्य इन संखड़ियों में है। वृषभ यदि उनकी वर्जना नहीं करते हैं तो उनको चतुर्लघु जाने के लिए गुरु को निवेदन करता है। निषेध करने पर वह का प्रायश्चित्त है। दोनों जाते हैं तो दोनों को चतुर्गुरु का कहता है-) प्रायश्चित्त तप और काल से गुरु होता है। वृषभों द्वारा वर्जना ३१५१.अत्थि य मे पुव्वदिट्ठा, चिरदिट्ठा ते अवस्स दट्ठन्वा। करने पर भी यदि आचार्य अपनी शक्ति के अहं से जाते हैं तो मायागमणे गुरुगो, तहेव गामाणुगामम्मि। वे प्रायश्चित्त के भागी हैं, वृषभ शुद्ध हैं।
भंते! उस गांव में मेरे पूर्वपरिचित मित्र हैं। उनसे मिले
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