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अर्थात् आवश्यक का करना- इसमें अग्निविराधना से निष्पन्न प्रायश्चित्त है न करने पर संयम की परिहानि होती है। सूत्रार्थपौरुषी का भंग होने पर क्रमशः मासलघु और मासगुरु का प्रायश्चित्त है। उनको करने पर अग्निकाय की विराधना होती है। सज्योति उपाश्रय के प्रति मन में रति होने पर चतुर्गुरु और अरति होने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। ३४३७. जइ उस्सग्गे न कुणइ,
तइ मासा सव्व अकरणे लहुगा । वंदण थुई अकरणे,
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मासो संडासकाईसुं ॥ आवश्यक के जितने कायोत्सर्ग नहीं करता उतने लघुमास, सारा आवश्यक न करने पर चतुर्लघु, जितने वंदनक और जितनी स्तुतियां नहीं देता / करता उतने ही मासलघु और करता है तो चतुर्लघु तथा बैठते हुए संदशक (एक प्रकार की आसनगत शरीरमुद्रा) का प्रमार्जन न करने पर मासलघु और प्रमार्जन करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित है।
३४३८. आवस्सिमा निसीहिन
पमज्ज आसज्जअकरणे इमं तु पणगं पणगं लघु लघु,
आवडणे लहुग जं चऽन्नं ॥ निष्क्रमण करते हुए 'आवश्यिकी' और प्रवेश करते हुए नैषेधिकी कहने पर पंचक तथा निष्क्रमण प्रवेश करते हु प्रमार्जन न करने पर तथा आसज्जशब्द न करने पर मासलघु, आपतन और पतन दोनों में लघुमास तथा इनमें आत्मविराधना होती है, तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त तथा अग्नि में प्रतापना आदि की जाती है।
३४३९. सेहस्स विसीयणया, ओसक्कऽतिसक अन्नहिं नयणं । विज्झविऊण तुअट्टण, अहवा वि भवे पलीवणया ॥ शैक्ष अग्नि में ताप कर अपनी विशीतता- शीतता से मुक्ति पा सकता है। जितनी बार हाथ-पैरों को तपाता है उतने ही चतुर्लघु का प्रायश्चित है अग्नि को शीघ्र बुझाने के लिए ईंधन निकालना, प्रज्वलित करने के लिए उसमें ईंधन डालना, उसे स्थानान्तरित करना, अग्नि को बुझाकर सोना - प्रत्येक में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। प्रमाद के कारण दहन भी हो सकता है, आग लग सकती है। ३४४० गाउअ दुगुणावगुणं, बत्तीसं जोयणाहं चरिमपदं ।
चत्तारि छच्च लहु गुरू, छेओ मूलं तह दुगं च ॥ एक गव्यूति से प्रारंभ कर द्विगुण से द्विगुण की वृद्धि १. अध्वा - महदरण्यम् । (वृ. पृ. ९६२)
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बृहत्कल्पभाष्यम्
करते हुए बत्तीस योजन पर्यन्त यह चरमपद के प्रायश्चित्त तक जाता है जैसे यदि एक गव्यूति तक वहन होता है तो चतुर्लघु, अर्द्धयोजन तक चतुर्गुरु, योजन तक षड्लघु, दो योजन का षड्गुरु, चार योजन छेद, आठ योजन मूल, सोलह योजन अनवस्थाप्य, बत्तीस योजन पारांचिक । ३४४१. गोणे व साणमाई, वारणे लहूगा य जं च अहिगरणं । लहुगा अवारणम्मिं खंभ-तणाई पलीवेज्जा ॥ गाय, श्वान आदि की वर्जना करने पर चतुर्लघु तथा उनके लौटते समय जो उनके द्वारा अधिकरण होता है उसका प्रायश्चित्त भी आता है। यदि उनका वारण न किया जाए तो भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। वे पशु प्रविष्ट होकर अग्नि को चालित कर स्तंभ, तृण आदि को प्रदीप्त कर सकते हैं। ३४४२.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए ।
गीवत्था जयणाए वसंति तो अगणिसालाए । अध्वा का अर्थ है - महान् अरण्य' । अध्वा से निर्गत होकर गांव में पहुंच कर तीन बार शुद्ध वसति की मार्गणा करते हैं। न मिलने पर गीतार्थ मुनि यतनापूर्वक अग्निशाला में ठहरते हैं।
३४४३. अद्धाणनिग्गयाई, तिन्हं असईए फरुससालाए । गीयत्था जयणाए, वसंति तो पयणसालाए । अध्वनिर्गत मुनि गांव में पहुंचकर तीन बार शुद्ध वसति की मार्गणा करते हैं। न मिलने पर गीतार्थ मुनि यतनापूर्वक पचनशाला - कुंभकारशाला में रहते हैं ।
३४४४. पणिए य भंडसाला, कम्मे पयणे य वग्धरणसाला । इंधणसाला गुरुगा, सेसासु वि होंति चउलहुगा ॥ पणितशाला, भांडशाला, कर्मशाला, पचनशाला, व्याघरणशाला, और ईंधनशाला । ईंधनशाला में निष्कारण रहने पर चतुर्गुरु का तथा शेष शालाओं में ठहरने में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है।
३४४५.कोलालियावणो खलु, पणिसाला भंडसाल जहिं भंड। कुंभारकुडी कम्मे, पयणे वासासु आवाओ ।। ३४४६. तोसलिए वम्परणा, अग्नीकुंडं तहिं जलति निच्च । तत्थ सयंवरहेडं, चेडा चेडी य छुन्यंति ॥ कुलाल अर्थात् कुंमकार का आपण पणितशाला कहलाती है। जहां घट, शराव आदि भांड रखे जाते हैं वह है भांडशाला | कुंभकारकुटी - अर्थात् जहां कुंभकार घट आदि भाजन बनाता है। वर्षा में जहां मृत्भाजन पकाए जाते हैं वह है पचनशाला । ईंधनशाला जहां ईंधन रखा जाता है। तोसलिदेश में गांव के मध्य में जो शाला बनाई जाती है, वह है
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