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दूसरा उद्देशक
= ३५१ भाजनों को न्यून देखता है या पानी के भाजन को अपहृत ३४३२.अहवण वारिज्जतो, निक्कारणओ व तिण्ह व परेणं। देखता है, पानी को जमीन पर बिखरा हुआ देखता है तब वह छेयं चिय आवज्जे, छेयमओ पुव्वमाहंसु॥ पूछता है-पानी कौन ले गया? मुनि कहते हैं-चोर ले गए। अथवा ज्योतियुक्त उपाश्रय में रहने की वर्जना करने पर कौन चोर? इस प्रश्न का उत्तर न देने पर, सागारिक के भद्र भी यदि कोई निष्कारण ही तीन दिनरात से अधिक वहां या प्रान्त होने पर जो दोष उत्पन्न होते हैं, वे ये हैं। (यहां रहता है तो छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए छेदपद गाथा ३३५८ से ३३६७ पर्यन्त अध्याहार्य हैं।)
पहले कहा गया है। ३४२९.चउमूल पंचमूलं, तालोदाणं च तावतोयाणं। ३४३३.दुविहो य होइ जोई, असव्वराई य सव्वराई य।
दिट्ठ मए सन्निचया, अन्ने देसे कुडुंबीणं॥ ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु॥ आचार्य उस स्थान में पड़े उदक भाजनों की जानकारी ज्योति दो प्रकार की होती है-सार्वरात्रिक, असार्वरात्रिक। करने के लिए गृहस्वामी से कहते हैं-भद्र! हमने अन्य देश दोनों प्रकार की ज्योतियुक्त उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का में एक कौटुंबिक के घर में चतुर्मूल (चार प्रकार की प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। सूत्र सुरभित जड़ों से भावित), पंचमूल (पांच प्रकार की सुरभित गीतार्थ के लिए प्रवृत्त है। जड़ों से भावित), तोसलिदेश में प्रसिद्ध तालोदक तथा (यहां गाथा ३३१३ से ३३३४ पर्यन्त अध्याहार्य है।) राजगृह आदि में होने वाले तापतोय तप्तपानी के सन्निचय ३४३४.उवगरणे पडिलेहा, पमज्जणाऽऽवास पोरिसि मणे य। देखें हैं।
निक्खमणे य पवेसे, आवडणे चेव पडणे य॥ (यहां गाथा ३३६९ से ३३८८ पर्यन्त द्रष्टव्य हैं।) __ ज्योतियुक्त उपाश्रय में रहने वाले मुनियों के उपकरण के
प्रत्युपेक्षण में, वसति के प्रमार्जन में, आवश्यक करने में, उवस्सए जोइ-पदं
सूत्रार्थ की पौरुषी करने में, मन में राग-द्वेष करने में, उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए
निष्क्रमण और प्रवेश में क्रमशः नैषेधिकी और आवस्सही जोई झियाएज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा
करने में, आपतन-टकरा कर गिरने में तथा पतन में
तेजस्काय अथवा स्वयं की विराधना होती है। अतः तन्निष्पन्न निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हुरत्था
प्रायश्चित्त आता है। दोष के भय से उपरोक्त क्रियाएं न करने य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं
पर भी प्रायश्चित्त आता है। से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। जे ३४३५.पणगं लहुओ लहुया, चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु। तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं
लहुगा गुरुगा य मणे, सेसेसु वि होति चउलहुगा॥ वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥
उपकरणों का प्रत्युपेक्षण न करने पर जघन्य में पंचक, (सूत्र ६)
मध्यम में मासलघु और उत्कृष्ट में चतुर्लघु, वसति आदि का
प्रमार्जन न करने पर मासलघु, आवश्यक न करने पर ३४३०.उदगाणंतरमग्गी, सो उ पईवो व होज्ज जोई वा। चतुर्लघु, सूत्रपौरुषी न करने पर मासलघु और अर्थपौरुषी न
पडिवक्खणं व गयं, समागमो एस सुत्ताणं॥ करने पर मासगुरु का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार दोष के भय प्रस्तुत सूत्र में उदक के पश्चात् अग्नि का कथन है। से भी उपकरण की प्रत्युपेक्षा करने, वसति की प्रमार्जना अग्नि प्रदीप या ज्योति हो सकती है। अथवा प्रतिपक्षरूप में करने, सूत्रार्थ की पौरुषी करने इन चारों में प्रत्येक का यह सूत्र है, जैसे-पानी का शस्त्र है अग्नि और अग्नि का प्रायश्चित्त है चार लघुमास। मन में राग-द्वेष करने से क्रमशः शस्त्र है पानी। ये परस्पर प्रतिपक्षी हैं। यह दोनों सूत्रों का चतुर्गुरु और चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। शेष में चतुर्लघु का समागम संबंध है।
प्रायश्चित्त है। ३४३१.देसीभासाए कयं, जा बहिया सा भवे हुरच्छा उ।। ३४३६.पेह पमज्जण वासग अग्गी, बंधऽणुलोमेण कयं, छेए परिहार पुव्वं तु॥
ताणि अकुव्वओ जा परिहाणी। 'हुरत्था' शब्द देशीभाषा में बाह्य अर्थ में प्रतिबद्ध है। पोरिसिभंगे अभंगि सजोई, विवक्षित उपाश्रय के बर्हिवर्ती वगडा को 'हुरत्था' कहा जाता
होति मणे उ रती वऽरई वा॥ है। बन्धानुलोमता से परिहारपद से पूर्व छेद पद है।
उपकरणों की प्रत्युपेक्षा, वसति की प्रमार्जना, वासय
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