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________________ ३५० =बृहत्कल्पभाष्यम् उवस्सए उदग-पदं उस उपाश्रय में धारोदक-पर्वत के निर्झर का पानी, महान् नदियों (गंगा, सिन्धु आदि) का जल, अनेक द्रव्यों से उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदग सुवासित जल है। इन प्रकारों के पानी के प्रति प्यासे व्यक्ति वियडकुंभे वा उसिणोदगवियडकुंभे वा की अभिलाषा होती है अथवा पूर्वानुभूत व्यक्ति के मन में उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण रात-दिन स्मृति होती रहती है। वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। ३४२३.इहरा कहासु सुणिमो, इमं खु तं विमलसीतलं तोयं। हरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो विगयस्स वि णत्थि रसो, इति सेवे धारतोयादी। हम कथाओं में ऐसे विमल और शीतल जल की बातें लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं सुनते थे। आज उसका प्रत्यक्षतः स्वाद चख लिया। प्रासुक वा वत्थए, जे तत्थ परं एगरायाओ वा जल में वह रस-स्वाद नहीं है, यह सोचकर धारोदक आदि दुरायाओ वा वसति से संतरा छेए वा का सेवन करता है। परिहारे वा॥ ३४२४.विगयम्मि कोउयम्मी, छट्ठवयविराहण त्ति पडिगमणं। (सूत्र ५) वेहाणस ओहाणे, गिलाणसेहेण वा दिट्ठो। ३४२५.तण्हाइओ गिलाणो, तं दट्ठ पिएज्ज जा विराहणया। ३४१९.छोढूण दवं पिज्जइ, गालिंति दवं व छोढणं तं तु। एमेव सेहमादी, पियंति अप्पच्चओ वा सिं॥ पातुं मुहं व धोवइ, तेणऽहिकारो सजीवं वा॥ पानी पीने की अभिलाषा पूरी होने पर वह मुनि सोचता पानी मिलकार मदिरापान किया जाता है, अथवा पानी है, मैंने छठे व्रत की विराधना कर दी है। इसलिए वह मिलाकर मदिरा को गालते हैं, अथवा मदिरा पीकर मुंह का प्रतिगमन या फांसी या पलायन कर लेता है। ग्लान या शैक्ष प्रक्षालन करते हैं, इसलिए मदिरा के पश्चात् पानी ने उसे पानी का सेवन करते हुए देख लिया तब प्यास से का अधिकार है। पानी सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार का व्याकुल ग्लान भी पानी पी लेता है। उसके अनेक प्रकार की होता है। परितापना होती है, विराधना होती है। इसी प्रकार शैक्ष आदि ३४२०.सीतोदे उसिणोदे, फासुगमप्फासुगे य चउभंगो।। मुनि भी उस पानी का सेवन करते हैं और उनके मन में ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थ सुत्तं तु॥ परंपरा के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो जाता है। शीतोदक-उष्णोदक-प्रासुक-अप्रासुक-इन पदों की (यहां भी वृत्तिकार ३३४५ से ३३५५ तक गाथाओं का चतुर्भंगी होती है। जैसे-शीतोदक प्रासुक, शीतोदक अध्याहार करने का संकेत देते हैं।) अप्रासुक, उष्णोदक प्रासुक, उष्णोदक अप्रासुक। इस प्रकार ३४२६.ऊसव-छणेसु संभारियं दगं तिसिय-रोगियट्ठाए। के उदकप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त दोहल कुतूहलेण व, हरंति पडिवेसयाईया॥ आता है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ मुनि के लिए है। प्रस्तुत उत्सव और क्षण के लिए संभारित-कर्पूर आदि से अनुज्ञा विषयक सूत्र गीतार्थ के लिए कहा है। वासित पानी को प्यास बुझाने या रोगी के लिए या दोहद की ३४२१.अणुभूया उदगरसा, नवरं मोत्तुं इमेसि उदगाणं। पूर्ति के लिए या स्वाद के कुतूहल से प्रेरित होकर चोर या काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारद्धो॥ पड़ौसी चुरा कर ले जाते हैं। (यहां वृत्तिकार ने यह सूचना दी है कि ३३१३ से ३३४१ ३४२७.गहियं च तेहिं उदगं, चित्तूण गया जहिं सि गंतव्वं । तक की सारी गाथाएं-उदकाभिलाप से विशेषित होकर सागारिओ व भणई, सउणी वि य रक्खई निहुं॥ ज्ञातव्य हैं।) मुनि के मन में यह चिंतन उभरता है कि मैंने ___ चोरों ने पानी ले लिया। पानी लेकर उन्हें जहां जाना था, यहां प्रस्तुत उदक रसों को छोड़कर अनेक उदकरसों का वहां चले गए। प्रातः सागारिक गृहस्वामी आया और अनुभव किया है। तो अब मैं मेरी अभिलाषा को पूरी करूं। बोला-भंते! पक्षी भी अपने नीड की रक्षा करता है, आपने सभी साधुओं के सो जाने पर वह उदकपान करना प्रारंभ इतना भी नहीं किया, पानी की रक्षा भी नहीं की। करता है। ३४२८.दगभाणूणे दर्दू, सजलं व हियं दगं व परिसडियं। ३४२२.धारोदए महासलिलजले संभारिते व्व दव्वेहि। केण इमं तेणेहिं, असिढे भद्देयर इमे उ॥ तण्हातियस्स व सती, दिया व राओ व उप्पज्जे॥ किसी प्रयोजनवश गृहस्वामी वहां आता है और उदक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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