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दूसरा उद्देशक
३५३ व्याघरणशाला। वहां अग्निकुंड निरंतर प्रज्वलित रहती है। परिजीर्ण वस्त्र की प्रत्युपेक्षा करे। अग्नि के बुझ जाने पर वहां अनेक लड़के और एक स्वयंवर रचने वाली लड़की को सारोपकरणों की प्रत्युपेक्षा करे। यदि बाहर स्थान न हो और प्रविष्ट कराया जाता है। जिस लड़के को वह पसंद करती है, भय हो तो सारे उपकरणों का प्रत्युपेक्षण अग्नि के बुझ जाने उसके साथ उसका विवाह कर दिया जाता है।
पर करे। ३४४७.इंधणसाला गुरुगा, आदित्ते तत्थ नासिउं दुक्खं। ३४५२.निंता न पमज्जंती, मूगाऽऽवासं तु वंदणगहीणं।
दुविह विराहण झुसिरे, सेसा अगणी य सागरिए॥ पोरिसि बाहि मणेण व, सेहाण य दिति अणुसडिं।। ईंधनशाला में रहने पर चतुर्गुरु क्योंकि उसके प्रदीप्त होने ३४५३.नाणुज्जोया साहू, दव्वुज्जोवम्मि मा हु सज्जित्था। पर उसको बुझाना सुदुष्कर होता है। वहां संयम और आत्म
जस्स वि न एइ निद्दा, स पाउय निमीलिओ गिम्हे। विराधना-दोनों होती हैं क्योंकि तृण आदि शुषिर होते हैं। बाहर जाते-आते भूमी का प्रमार्जन नहीं करते। वसति का पचनशाला में अग्नि दोष होता है। शेष शालाओं में केवल भी प्रमार्जन नहीं करते। आवश्यक मौनभाव से तथा वन्दनकसागारिक रहता है-विक्रेता, क्रेता आदि।
रहित करते हैं। सूत्रार्थपौरुषी उपाश्रय के बाहर करते हैं। ३४४८.पढमं तु भंडसाला, तहि सागरि नत्थि उभयकालं पि। बाहर स्थान न होने पर मन ही मन कर लेते हैं। ज्योति के
कम्माऽऽपणि निसि नत्थी, सेस कमेणेधणी जाव॥ प्रकाश में राग रखने वाले शैक्ष मुनियों को गीतार्थ मुनि शुद्ध उपाश्रय की प्राप्ति न होने पर पहले भांडशाला में अनुशिष्टि देते हैं-'मुनियो! साधु ज्ञान के उद्योत वाले होते क्योंकि वहां दिन-रात-दोनों समय कोई सागारिक नहीं हैं। यह भाव उद्योत है। तुम द्रव्य उद्योत में राग मत करो। रहता। कर्मशाला या आपणशाला में रात में सागारिक नहीं यदि प्रकाश में नींद नहीं आती है तो मुंह पर कपड़ा देकर सो रहता। इनके अभाव में शेष पचनशाला आदि के क्रम से रहे जाओ। ग्रीष्म में आंखें बंद कर सो जाओ।' यावत् ईंधनशाला में।
३४५४.आवास बाहि असई, ३४४९.ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं।
ठिय वंदण विगड जयण थुइहीणं। जागरमाण वसंती, सपक्खजयणाए गीतत्था॥
सुत्तत्थ बाहि अंतो, वहां रहते हुए साधु विधिपूर्वक अपने संस्तारक करें।
चिलिमिणि काऊण व झरंति॥ गीतार्थ मुनि स्वपक्षयतना करते हुए जागते रहे।
आवश्यक बाहर करें। बाहर स्थान न हो तो जहां स्थित ३४५०.पासे तणाण सोहण, अहिसक्कोसक्क अन्नहिं नयणं। हों वहीं करें। वन्दनक न दें। विकटन आलोचना यतनापूर्वक
संवरणा लिंपणया, छुक्कारण वारणाऽऽगट्ठी॥ करे। स्तुतिमंगल मन से ही करें। सूत्रार्थपौरुषी बाहर करे। अग्नि के पार्श्व में यदि तृण आदि हों तो उनका शोधन बाहर स्थान न हो तो उपाश्रय के भीतर चिलिमिलिका को करें। श्वापद का भय होने पर अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। बांधकर स्वाध्याय करे। चिलिमिलि के अभाव में मन ही मन तथा चोरों का भय होने पर अग्नि को मंद कर देते हैं, सोने सूत्र और अर्थ की अनुप्रेक्षा करे। के समय अग्नि को अन्यत्र ले जाते हैं। अग्नि को ढंकना, ३४५५.मूगा विसंति निति व, उम्मुगमाई कओ वि अछिवंता। स्तंभ आदि का गोबर से लिंपन करना, चोर आदि के प्रवेश
सेहा य जोइ दूरे, जग्गंति य जा धरह जोई॥ करने की स्थिति में छुक्कार करना, यदि वे प्रवेश करना बंद न उपाश्रय में प्रवेश या निर्गमन मूकभाव से करें। उल्मुककरें तो उनकी वर्जना करना, आग लग जाने पर धूल आदि अलात आदि अग्नि-स्थानों का स्पर्श न करते हुए आनासे बुझाने का प्रयत्न करना ये सारे कार्य गीतार्थ को करने जाना करे। शैक्ष मुनियों को ज्योति से दूर स्थापित करे। होते हैं।
गीतार्थ मुनि तब तक जागते रहें जब तक ज्योति बुझ न ३४५१.कडओ व चिलिमिणी वा,
जाए। __ असती सभए व बाहि जं अंत। ३४५६.अद्धाणाई अइनिद्दपिल्लिओ गीओसक्किउं सुवइ। ठाणाऽसति य भयम्मि व,
सावयभय उस्सक्के, तेणभए होइ भयणा उ॥ विज्झायऽगणिम्मि पेहिति॥ अध्व आदि से परिश्रान्त अथवा अतिनिद्रा से प्रेरित प्रत्युपेक्षणा आदि करते समय अग्नि और स्वयं के बीच गीतार्थ अग्नि को दूर हटाकर सो जाता है। श्वापद का भय कट या चिलिमिली देनी चाहिए। उनके अभाव में उपाश्रय के होने पर अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। स्तेनों का भय होने पर बाहर प्रत्युपेक्षणा करें और यदि बाहर भय हो तो अन्त्य- अग्नि का उज्ज्वालन या विध्यापन की भजना है।
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