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________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय स्थानों में बने उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों के स्थानानुरूप प्रायश्चित्त का विधान। २३०४-२३१० आपणगृह आदि में ठहरी साध्वियों के तरुण व्यक्तियों, वेश्याओं, विवाह तथा राजा आदि को देखकर भुक्तभोगों का स्मरण आदि होने वाले दोष। २३११-२३१९ सार्वजनिक स्थानों में ठहरी हुई श्रमणियों को देखकर तरुणों के मन में तर्कणा, मोहोदय, कुलगृह की अवमानना तथा उचित उपाश्रय के अभाव में अनुचित उपाश्रय में रहना पड़ रहा है, इस प्रकार का लोकापवाद। २३२०-२३२४ निर्दोष वसति की गवेषणा। उसके अभाव में श्रमणियों को कहां-कहां ठहरने का विधान। सूत्र १३ २३२५ मुनियों के लिए भी पूर्वोक्त नियम। उसके अभाव में अन्य स्थानों में भी यतनापूर्वक रहने का निर्देश। अवंगुयदुवार-उवस्सय-पदं सूत्र १४ २३२६-२३३३ बिना कपाट के खुले उपाश्रयों में साध्वियों को रहने का निषेध तथा वहां उद्भूत होने वाले दोष। यदि अपवाद रूप में रहना पड़े तो वहां रहने की विधि और रक्षा। २३३४-२३३८ दरवाजे की रक्षा करने वाली प्रतिहारी साध्वी कैसी हो? उसके गुण और कार्य। २३३९-२३४२ अनावृत उपाश्रय में साध्वियों के सोने का क्रम तथा विधि। २३४३-२३४७ अनावृत उपाश्रय में जागना, मोक का विसर्जन, काल की प्रतिलेखना और स्वाध्याय की क्रम विधि। २३४८,२३४९ चोरी के लिए अथवा मैथुन के लिए अथवा दोनों के लिए प्रतिश्रय में आए हुए व्यक्ति को निकालने के लिए साध्वियों द्वारा करणीय विधि। २३५०-२३५२ अध्वनिर्गत मार्ग में सुरक्षित द्वारवाला उपाश्रय न मिलने पर खुले द्वार वाले उपाश्रय में साध्वियों के रहने की विधि। उपसर्ग के समय तरुण अथवा वृद्ध साध्वी को उसका निवारण किस प्रकार करना चाहिए? उसकी विधि। गाथा संख्या विषय सूत्र १५ २३५३,२३५४ साधु को उपाश्रय के द्वार को ढंकने का निषेध। ढंकने से त्रस जीवों के अभिघात का प्रसंग। प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग का दोष। २३५५ आगाढ़ कारण में यतनापूर्वक द्वार बंद करने का कल्प। २३५६-२३६० जिनकल्पी और स्थविरकल्पी की द्वार संबंधी पृथक्-पृथक् विधियां और कारण। कारणवश द्वार बन्द न करे तो उससे होने वाले दोष। २३६१ कपाटों को रजोहरण से प्रमार्जित कर खोलने अथवा बंद करने की विधि। घडीमत्तय-पदं सूत्र १६ २३६२,२३६३ निग्रन्थियों को घटीमात्रक रखना और उसका उपयोग करने का कल्प। ग्रहण नहीं करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २३६४ निर्ग्रन्थियों के घटीमात्रक का स्वरूप। सूत्र १७ २३६५ निग्रन्थों को घटीमात्रक रखना और उसका उपयोग करना नहीं कल्पता। ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। २३६६,२३६७ प्रमाण और परिहरण के दो दो प्रकार। उनकी व्याख्या। २३६८-२३७० निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को घटीमात्रक रखने का कारण और उसके अभाव में होने वाले विकल्प। चिलिमिलिया-पदं सूत्र १८ २३७१ घटीमात्रक की तरह चिलिमिलिका ग्रहण तथा यतना का निर्देश। २३७२-२३८१ धारण और परिहरणा का अर्थ। चिलिमिलिका के द्वार। चिलिमिलिका उपग्रहकारी क्यों? उसके पांच प्रकार। प्रत्येक का अलग-अलग प्रमाण । प्रत्येक के उपयोग के भिन्न-भिन्न प्रकार। उपयोग न करने पर प्रायश्चित्त और संयम तथा आत्मविराधना से निष्पन्न प्रायश्चित्त। २३८२ उपाश्रय में निवास करने वाली साध्वियों के लिए चिलिमिलिका का उपयोग और उससे लाभ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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