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पहला उद्देशक
३०३५. अणुसट्टाई तत्थ वि, काउ सपल्लि इतरीसु वा घेत्तुं । सत्थेणेव जणवय, उविंति अह भद्दए जयणा ॥ वहां भी मुनि धर्मकथा करे, अपने उपकरण लेकर मूलपल्ली में आ जाए। वहां आकर किसी सार्थ के साथ जनपद में चले जाए। यह भद्रक पल्लीपति विषयक यतना है। ३०३६. फडुपए पंते, भणति सेणावहं तहिं पंते। फड्डुगपइए उत्तरउत्तर माटुंबियाइ जा पच्छिमो राया ॥ मूल पल्लीपति के अधीनस्थ कोई स्पर्द्धक पल्लीपति प्रान्त हो और वह लूटे हुए वस्त्र देना न चाहे तो मूल पल्लीपति को प्रज्ञापित करे। वह उससे वस्त्र दिला देता है। यदि वह भी प्रान्त हो तो माडंबिक- मडंब के अधिपति को कहना चाहिए। इसी प्रकार उत्तरोत्तर प्रज्ञापित करते करते अंत में राजा तक बात पहुंचानी चाहिए।
३०३७. वसिमे वि विवित्ताणं, एमेव य वीसुकरणमादीया ।
वोसिरणे चडलहूगा, जं अहिमरणं च हाणी जा ।। जनपद में भी लूट लिए जाने पर इसी प्रकार वस्त्रों को पृथक् पृथक करना आदि सारी विधि पूर्ववत् है। गवेषणा के श्रम से कतरा कर कोई लूटे गए वस्त्रों का व्युत्सर्जन करता है, उसे चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा अधिकरण- अपड़त वस्त्रों के प्रक्षालन आदि का दोष और वस्त्रों के अभाव में संयमयोगों की हानि भी होती है।
अद्धाण-पदं
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा राओ वा वियाले वा अद्वाणगमणं एत्तए । संखडि वा संखडिपडियाए इत्तए ' ॥
(सूत्र ४४)
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३०३८. हरियाहडियट्टाए,
होज्ज विहेमाहयं न वारेमो । जं पुण रत्तिं गमणं, तदट्ठ अन्नट्ठ वा सुत्तं ॥ हृताहृत के प्रयोजन से जाना, पल्ली आदि में वस्त्रगवेषणा के लिए गमन करना, हम उसका वर्जन नहीं करते हैं। हताहतिक के प्रयोजन से अथवा अन्य प्रयोजन से रात्री में जाना नहीं कल्पता, यह इस सूत्र का आशय है। ३०३९. अहवा तत्थ अवाया, वच्चंते होज्ज रत्तिचारिस्स । जइ ता विहं पि रत्तिं, वारेतऽविहं किमंग पुणो ॥
१. वृत्तिकृता एतत् स्वतंत्रसूत्रं स्वीकृतम् ।
२. कुछ आचार्य कहते हैं- जिससे संध्या शोभित होती है वह है रात्री । संध्या का बीत जाना-विकाल है। कुछ आचार्य कहते हैं-संध्या के
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रात्रीचारी मुनि के मार्गगत अनेक अपाय दोष हो सकते हैं, इसलिए रात्रीगमन का निषेध है । रात्री में विहरण का निषेध है, परन्तु अवि-गांव आदि में घूमने का निषेध क्यों ? ३०४०. इहरा वि ता न कप्पर, अद्धाणं किं तु राहविसयम्मि ।
अत्थावत्ती संसद, कप्पड़ करने दिया नूणं ॥ मुनि को अन्यथा विहरण करना भी नहीं कल्पता तो फिर रात्रीविषयक बात ही क्या? सूत्र रात्रीविषयक निषेध करता है। अर्थापत्ति के आधार पर कहा जा सकता है कि कार्य उपस्थित होने पर दिन में विहरण किया जा सकता है। ३०४१. अाणं पिय दुविहं, पंथो मम्मो य होइ नायव्वो ।
पंथम्म नत्थि किंची, मग्गो सग्गामो गुरु आणा ॥ अध्वा के दो प्रकार हैं-पंथ और मार्ग । पंथ वह है जिससे विहरण करने पर कोई भी गांव, नगर, पल्ली आदि नहीं आते और मार्ग वह है जिसमें गांव आदि प्राप्त होते हैं। दोनों प्रकार के अध्वा से रात्री गमन करने पर चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं।
३०४२.तं पुण गम्मिज्ज दिवा, रत्तिं वा पंथ गमण मग्गे वा ।
रत्तिं आएसदुगं, दोसु वि गुरुगा य आणादी ॥ अध्वा अर्थात् पथ या मार्ग में रात या दिन में जाया जाता है । रात्रीगमन में दो परंपराएं हैं। इनके अनुसार पथ या मार्ग से रात्री या विकाल में विहरण करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३०४३.मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होइ संजमा ऽऽयाए ।
रीयाइ संजमम्मी, छक्काय अचक्खुविसयम्मि ॥ रात्री में विहार करने पर मिथ्यात्व, उड्डाह तथा संयम और आत्मा की विराधना होती है। संयमविराधना में ईर्यासमिति का अशोधन, रात्री में अचक्षुविषय - न दीखने के कारण षट्काय विराधना होती है (यह द्वार गाथा है अर्थ विस्तार आगे)।
३०४४. किं मण्णे निसि गमणं, जतीण सोहिंति वा कहं इरियं । जहवेसेण व तेणा, अडंति महणाह उड्डाहो ॥ संयमी मुनियों का रात्रीगमन क्यों ? रात्री में ईर्यासमिति का शोधन कैसे होता है? ये यतिवेश में चोर घूम रहे हैं। इसलिए उनको पकड़ लेने या राजकुल आदि में ले जाने पर प्रवचन का उड्डाह होता है।
३०४५.संजमविराहणाए, महव्वया तत्थ पढम छक्काया । बिइए अतेण तेणं, तइए अदिनं तु कंदाई ॥
बीत जाने पर चोर, पारदारिक आदि जिसमें सक्रिय होते हैं वह है रात्री । संध्या में वे विरत रहते हैं अतः वह है विकाल । संध्या और रात्री के मध्य का जो काल है, वह है विकाल ।
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