SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ पेटी में अनेक वस्त्रों का समावेश होता है। इसी प्रकार सूत्र में भी अनेक अर्थपदों का समावेश होता है। १९२. इक्कं वा अत्यपयं सुत्ता बहुगा वि संपयंसंति । उक्खित्तनायमाइसु, अयमवि तम्हा अणेगंतो ॥ एक अर्थपद भी अनेक सूत्रों में वर्णित होता है। उसका संप्रदर्शन- अर्थाभिव्यक्ति अनेक सूत्रों से होती है। जैसेउत्क्षिप्तज्ञात' आदि में 'अनुकंपा करनी चाहिए इस अर्थ विषयक अनेक सूत्र ग्रथित हैं। आदि शब्द से 'संघाट' (ज्ञाता) में कहा है वर्णवृद्धि के लिए आहार नहीं करना चाहिए यह भी अनेकांत वचन है। क्योंकि 'अर्थ महान् होता है'। १९३. अत्थं भासइ अरिहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी । अत्यं च विणा सुत्तं अणिस्सियं केरिसं होज्जा ॥ अर्हत अर्थ का कथन करते हैं। उसीको गणधर सूत्ररूप मैं ग्रथित करते हैं। बिना अर्थ के अनिश्रित सूत्र कैसा होता है ? वह असंबद्ध होता है। १९४. अहिगो जोगो निजोगो, जहाऽइदाहो भवे निदाहो त्ति। अत्थनिउत्तं सुत्तं, पसवइ चरणं जओ मुक्खो ॥ 'नि' आधिक्य के अर्थ में प्रयुक्त है। नियोग का अर्थ हे अधिक योग जैसे अतिदाह अर्थात् निदाह किसका किसके साथ आधिक्य ? इसका उत्तर है सूत्र का अर्थ के साथ सूत्रस्यार्थेन अधिक योग का फल क्या है? अर्थ के साथ अधिकता से नियुक्त सूत्र चारित्र का उत्पादक होता है। चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। १९५. बच्छनियोगे खीरं, अत्थनियोगेण चरणमेवं तु । पत्तन दंडियमुभयं दंडियसरिसो तहिं अत्थो । जैसे बछड़े के नियोग से गाय दूध का प्रसवण करती है, वैसे ही अर्थ के नियोग से चारित्र का प्रसव होता है। पत्रक, दंडिका और उमय अर्थात पत्र भी दंडिका भी दंडिका के सदृश होता है अर्थ स्पष्टार्थ आगे तीन पुरुष राजा की सेवा में संलग्न थे। राजा ने उनकी सेवा से संतुष्ट होकर, निकटस्थ गांव में एक नया मकान उनको दिया । एक व्यक्ति उस गांव के राजपुरुषों के लिए एक पत्र लिखा कर ले गया। दूसरा व्यक्ति केवल राजमुद्रायुक्त पत्र लेकर गया और तीसरा व्यक्ति मुद्रायुक्त लिखा पत्रक लेकर गया। प्रथम दोनों खाली हाथ लौटे और तीसरे व्यक्ति को वह नया मकान मिल गया, क्योंकि उसमें नए मकान विषयक बात भी थी और वह मुद्रांकित भी था । (पत्रक सदृश है सूत्र, दंडिका सदृश है अर्थ । केवल पत्रक १. ज्ञाताधर्मकथा - ज्ञात १ । २. वही, ज्ञात २ । Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम अथवा केवल दंडिका प्रयोजनीय नहीं होती। दोनों एक साथ होने पर वे प्रयोजन सिद्ध करते हैं। इसी प्रकार सूत्र और अर्थ दोनों होते हैं तो वे चारित्र के साधक होते हैं। पृथक पृथक नहीं। १९६. डिसस्स सरिसं, जो भासइ अत्थमेगु सुत्तस्स । सामइय बाल पंडिय, साहु जईमाइया भासा ॥ जैसा शब्द किया जाता है, वैसा ही प्रतिशब्द होता है। जो जैसा सूत्र होता है, उसका वैसा ही एक अर्थ कहा जाता है। वह उसकी भाषा है। जैसे- समभाव है सामायिक । जो भूख-प्यास से आकुल होता है वह है बाल । जो पाप से डरता है अथवा जिसकी बुद्धि पंडा है वह है पंडित । मोक्षमार्ग का साधक है साधु । सर्वात्मना संयमानुष्ठान करने वाला होता है यति आदि शब्दों की यह भाषा है। १९७. एक्केणं एकदलं तहिं कथं बिईएण बहुतरगा । तइएण छाइयं तं, तिल्लं - ऽबिलमादुवाएहिं || १९८. एगपए दु-तिगाई, जो अत्थे भणह सा विभासा उ असइ य आसु य धावइ, न य सम्मइ तेण आसो उ ॥ एक छत्रकार ने अपने तीन शिष्यों को तीन छत्र और अभ्रपटल देते हुए कहा इनको अभ्रपटल से आच्छादित करो। एक शिष्य ने एक अभ्रपटलदल को छत्र पर लगाया। दूसरे शिष्य ने अनेक अभ्रपटलों से छत्र को आच्छादित किया। तीसरे ने अनेक अभ्रपटलों से छत्र को आच्छादित कर, तैल-अम्बा आदि पदार्थों से उस पर लेप कर उसको मजबूत बना डाला। प्रथम शिष्य सदृश होता है भाषक और द्वितीय शिष्य सदृश होता है विभाषक । जो एक शब्दपद में दो-तीन आदि अर्थों की अभिव्यक्ति होती है वह है विभाषा, जैसे- अश्नाति इति अश्वः जो खाता है वह है घोड़ा। अथवा आशु धावति न च श्राम्यतीति अश्वः जो तेज दौड़ता है पर धकता नहीं, वह है अश्व यह है विभाषक । उसका कथन है विभाषा । तीसरे शिष्य के सदृश होता है व्यक्तिकर। १९९. सामाइयस्स अत्थं, पुव्वधर समत्तमो विभासेइ । चउरो खलु मखसुया, वत्तीकरणम्मि आहरणा ॥ जो चतुर्दश पूर्वधर सामायिक का अर्थ समस्तरूप से कहता है, वह व्यक्तिकर अथवा वार्तिककर होता है। व्यक्तिकरण के विषय में चार मंखपुत्रों का दृष्टांत है। २००. फलगिको गाहाहिं बिइओ तहओ य वाइयत्येणं । तिन्नि वि अकुटुंबभरा, तिगजोग चउत्थओ भरइ ॥ ३. पढमसरिच्छो भासगो, बिइय विभासो य तइय वितिकरो। इति । (वृ. पृ. ६४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy