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पीठिका
१८० संति पमाणाति पमेयसाहगाई तु सव्वतंतो उ। बेज्जवई य वसुमई, आपो य दवा चलो वाऊ ॥ प्रमेय को सिद्ध करने वाले प्रमाण हैं, पृथ्वी स्थिर है, पानी द्रव है, बायु चल है ये सर्वतंत्रसिद्धांत हैं अर्थात् सभी तंत्रों में ये अर्थ सिद्ध हैं।
१८१. जो खलु सतंतसिद्धो, न य परतंतेसु सो उ पडितंतो निच्चमणिज्यं सव्वं, निच्चानिच्चं च इच्चाई ॥ जो अर्थ स्व-तंत्र में सिद्ध है, पर तंत्र में नहीं, वह प्रतितंत्र सिद्धांत है। जैसे सांख्य मानते हैं सब नित्य है, बौद्ध मानते हैं सब अनित्य है, जैन मानते हैं सब नित्यानित्य है।
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१८२. सो अहिगरणो जहियं, सिद्धे सेसं अणुत्तमवि सिज्झे । निच्चते सिद्धे अन्नत्ता ऽमुत्तसंसिद्धी ॥ जिसके सिद्ध होने पर अनूक्त भी सिद्ध हो जाता है वह है अधिकरणसिद्धांत। जैसे-आत्मा की नित्यता सिद्ध होने पर शरीर से उसकी अन्यत्वसिद्धि तथा अमूर्त्तत्व की सिद्धि भी हो जाती है।
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१८३. जं अब्भुविच्च कीरह, सिच्छाएँ कहा स अन्भुवगमो उ। सीतो वही गयजूह तणगे मग्गु खरसिंगा ॥ जो अपनी इच्छा से किसी सिद्धांत को मानकर वादकथा में प्रवृत्त होता है, वह है अभ्युपगमसिद्धांत । जैसे किसी ने स्वेच्छा से मानकर कहा- अग्नि शीतल होती है, तृण के अग्रभाग पर गजयूथ है, मनु-जलकाक और गधे के सींग होते हैं।
१८४. कडकरणं दबे सासणं तु दब्बे व दव्वओ आणा । दव्वनिमित्तं बुभयं दुत्रि वि भावे इमं चेव ॥ कृतकरण अर्थात् मुद्रा द्रव्यतः शासन है और वही द्रव्यतः आज्ञा है । अथवा द्रव्योत्पादन के निमित्त जो शासन और आज्ञा है वह द्रव्यशासन और द्रव्यआज्ञा है । भावशासन और भावआज्ञा यही कल्पाध्ययन है।
१८५. दव्ववती दवाई जाएं गहियाई मुंबइ न ताव।
आराहणि दव्वस्स वि. दोहि वि भावस्स पडिवक्खो ॥ भाषा के प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर जब तक उनको भाषा के रूप में परिणत कर नहीं छोड़ा जाता तब तक वह द्रव्यवाक है अथवा द्रव्य की आराधनी वाक - यथार्थस्वरूप प्रतिपादिका भी द्रव्यवाक है। दोनों प्रकारों से भाववाक् का प्रतिपक्ष वक्तव्य है, जैसे- भाषायोग्य पुद्गलों को भाषा के १. (१) अनुयोग-सूत्र का अर्थ के साथ अनुकूल योग । (२) नियोग - निश्चित योग । (३) भाषा-अर्थ का कथन ।
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रूप में परिणत कर छोड़ना, यह नोआगमतः भाववाक है अथवा जो जीव के भाव ज्ञान आदि की आराधिका है, अथवा अजीव घट आदि के वर्णादिक की आराधिका है वह वाक नोआगमतः भाववाक है।
१८६. दव्वाण दव्वभूओ, दव्वट्ठाए व
विज्जमाईया | अह दव्वे उवएसो, पन्नवणा आगमे चैव ॥ वैद्य आदि रोगी को औषधि द्रव्यों का द्रव्यभूत अर्थात् अनुपयुक्त होकर द्रव्य-धन के निमित्त जो उपदेश देता है, प्रज्ञापना करता है तथा आगम-अर्थ का संग्रह करता है, यह सारा द्रव्यतः उपदेश, द्रव्यतः प्रज्ञापना और द्रव्यतः आगम है।
१८७. अणुयोगो य नियोगो, भास विभासा य वत्तियं चैव ।
एए अणुओगस्स उ, नामा एगडिया पंच ॥ अनुयोग के ये पांच एकार्थिक हैं-अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्त्तिक ।
१८८. निच्छियमुत्त निरुतं तं पुण सुत्ते य होइ अत्थे य। सुत्ते उबरिं वुच्छं, अत्यनिरुतं इमं तत्थ ॥ निरुक्त का अर्थ है- निश्चित कथन वह सूत्र का भी होता है और अर्थ का भी सूत्र विषयक निरुक्त आगे श्लोक ३१० मैं कहे जाएंगे। अर्थनिमित्त ये निरुक्त है१८९. अणु बायरे य उंडिय, पडिंसुया चेव अब्भपडले य
वत्तिय चउक्कभंगो, निरुत्तादी वत्तणी व जहा ॥ अनुयोग में अणुत्व और बादरत्व का दृष्टांत, नियोग में उंडिका - मुद्रा विषयक भाषा में प्रतिश्रुत का दृष्टांत विभाषा में अभ्रपटल का दृष्टांत तथा वार्त्तिक के चार भंग हैं। उनका दृष्टांत है मंख विषयक। तथा निरुक्त आदि । वर्त्तनी - मार्ग का दृष्टांत | ( इनकी व्याख्या अगली गाथाओं में ) । १९०. अणुणा जोगो अणुजोगी, अणु पच्छाभावओ य थेवे य जम्हा पच्छाऽभिहियं सुतं थोवं च तेणाणू ॥ अनु के साथ योग- अनुयोग अनु का अर्थ है-पश्चात्मृत अणु के साथ योग - अणुयोग । अणु का अर्थ है - थोड़ा। इसलिए जो पश्चात्कृत है, अल्प है, वह है सूत्र (अर्थ अननु है, क्योंकि वह पूर्व उक्त है। वह बादर है, क्योंकि वह बहुत १९१. पुव्वं सुत्तं पच्छा, य पगासो लोइया वि इच्छंति ।
है।)
पेलासरिसे सुत्ते, अत्थपया हुंति बहुया वि।। पहले सूत्र होता है, फिर प्रकाश अर्थात् अर्थ लौकिक लोग भी यही चाहते हैं। सूत्र पेटी के सदृश होता है। जैसी
(४) विभाषा-विविध प्रकार से कथन करना। (५) वार्त्तिक- पूरे पद का अर्थगत विवरण ।
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(बृ. पृ. ६१ )
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