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बृहत्कल्पभाष्यम्
एकाच
संग्रहार्थता आदि पांच भावों में से किसी एक भाव से अनुयोग करना भाव से अनुयोग है। इन पांचों में से दो-तीन भावों से अनुयोग करना भावों से अनुयोग है। भाव में अनुयोग-क्षायोपशमिक भाव में। भावों में अनुयोग नहीं है, क्योंकि क्षायोपशमिक भाव का एकत्व ही है। १६८. अहवा आयाराइसु, भावेसु उ एस होइ अणुओगो।
सामित्तं आसज्ज व, परिणामेसुं बहुविहेसुं॥ अथवा भावों में यह अनुयोग होता है, जैसे-आयारो आदि द्वादशांगों में जो भाव हैं, उनमें अनुयोग-भावों में अनुयोग है। अथवा स्वामित्व की अपेक्षा से बहुत परिणाम हैं, उनमें अनुयोग होना, अथवा क्षायोपशमिक भाव भी क्षण-क्षण में बहुविध होता है, उनमें व्यवस्थित की व्याख्या करना भावों में अनुयोग है। १६९. दव्वे नियमा भावो, न विणा ते यावि खित्त-कालेहि।
खित्ते तिण्ह वि भयणा, कालो भयणाय तीसुं पि॥ (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का परस्पर समवतार कैसे?) द्रव्य में नियमतः भाव है। भाव के बिना द्रव्य नहीं होते। द्रव्य और भाव क्षेत्र और काल के बिना नहीं होते। क्षेत्र में द्रव्य, काल और भाव-इन तीनों की भजना है। उसमें काल समयक्षेत्र में होता है, अन्यत्र नहीं। इस प्रकार उसकी भजना है। द्रव्य और भाव भी लोकाकाश में होते हैं, अलोक में नहीं। इनकी भी भजना है। १७०. आधारो आधेयं, च होइ दव्वं तहेव भावो य।
खित्तं पुण आधारो, कालो नियमा उ आधेयो॥ द्रव्य और भाव आधार और आधेय-दोनों होते हैं। द्रव्य भाव का आधार है और क्षेत्र का आधेय है। भाव काल का आधार है और द्रव्य का आधेय है। काल नियमतः आधेय होता है। उसका द्रव्य, क्षेत्र और भाव में अवस्थान होता है। १७१. वत्स(च्छ)ग गोणी खुज्जा, सज्झाए चेव बहिरउल्लावे।
गामिल्लए य वयणे, सत्तेव य हुंति भावम्मिह॥ वत्स, गाय, कुब्जा, स्वाध्याय, बधिरोल्लाप, ग्रामेयक, वचन-ये द्रव्य संबंधी सात उदाहरण हैं। १७२. सावगभज्जा सत्तवइए य कुंकणगदारए नउले।
कमलामेला संबस्स साहसं सेणिए कोवो॥ श्रावकभार्या, 'साप्तपदिक, कोंकणकदारक, नकुलक, कमलामेला, शंब का साहस, श्रेणिक का कोप-ये भाव संबंधी सात उदाहरण हैं।
१७३. बंधाणुलोमया खलु, सुत्तम्मि य लाघवं असम्मोहो।
सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेए॥ एकार्थिकों के प्रयोग से होने वाले ये गुण हैंबंधानुलोमता, सूत्र में लाघवता, असम्मोह-असंदिग्धता, शास्ता के गुणों का उद्दीपन। १७४. सुय सुत्त गंथ सिद्धंत सासणे आण वयण उवएसो।
पण्णवणमागमे इय, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते॥ श्रुत, सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना और आगम-ये सूत्र के दश पर्याय-एकार्थक हैं। १७५. दव्वसुयं पत्तग-पुत्थएसु जं पढइ वा अणुवउत्तो।
आगम-नोआगमओ, भावसुयं होइ दुविहं तु॥ १७६. आगमओ सुयनाणी, सुओवउत्तो य होई भावसुयं ।
सो सुयभावाऽणन्नो, सुयमवि उवओगओऽणन्नं ।। द्रव्यश्रुत है-पत्रक, पुस्तकों में न्यस्त श्रुत तथा जो उनको अनुपयुक्त होकर पढ़ता है वह। भावश्रुत के दो प्रकार हैं-आगमतः और नोआगमतः। आगमतः भावश्रुत है श्रुतोपयुक्त अर्थात् श्रुतज्ञानोपयोगवान् श्रुतज्ञानी। वह श्रुतज्ञानी श्रुतभाव से अनन्य है तथा श्रुत भी उपयोग से अनन्य है। १७७. जं तं दुसत्तगविहं, तमेव नोआगमो सुयं होइ।
सामित्तासंबद्धं, समिईसहियस्स वा जं तु॥ __ जो चौदह प्रकार का अक्षरश्रुत आदि कहा है वह पुरुषों में स्वामित्व से असंबद्ध अर्थात् पुरुषों से पृथक् विवक्षित श्रुत नोआगमतः भावश्रुत है। अथवा समितिसहित उपयुक्त पुरुष का जो श्रुत है वह नोआगमतः भावश्रुत है। १७८. पंचविहं पुण दव्वे, भावम्मि तमेव होइ सुत्तं तु।
सच्चित्ताई गंथो, दव्वे भावे इमं चेव॥ द्रव्यसूत्र के पांच प्रकार हैं-अंडज, बोंडज, कीटज, बालज तथा वल्कज। भावसूत्र वही है जो पूर्वगाथा में कहा है। द्रव्य ग्रंथ के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। भाव ग्रंथ है-यही कल्पाध्ययन। १७९. जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं यतीति तेण सिद्धंतो।
सो सव्व-पडीतंतो, अहिगरणे अब्भुवगमे य॥ जो सिद्ध अर्थ को अंत तक ले जाता है अर्थात प्रमाणकोटि में आरूढ़ करता है, वह है सिद्धांत। द्रव्यतः वह सिद्धांत है पुस्तकों में न्यस्त और भावतः सिद्धांत के चार प्रकार हैं-सर्वतंत्रसिद्धांत, प्रतितंत्रसिद्धांत, अधिकरणसिद्धांत तथा अभ्युपगमसिद्धांत।
द्रव्यसूत्र १
१. पांच भाव ये हैं-संगहट्टयाए, उवग्गहट्ठयाए, निज्जरट्ठयाए, सुय- २.क्षेत्र के बिना द्रव्य नहीं होता। तद्गत भाव भी क्षेत्र के बिना नहीं होता। पज्जवजाएणं, अव्वुच्छित्तीए।
काल के बिना द्रव्य और भाव नहीं होते।
३,४. कथाओं के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं.३-१४। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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