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पीठिका
चार मंखपुत्र गांव में याचना करने के लिए घूमते । एक केवल फलक लेकर घूमता है, कुछ बोलता नहीं, दूसरा फलक के बिना केवल गाथाएं बोलता हुआ घूमता है और तीसरा बिना फलक लिए बिना गाथाओं का उच्चारण किए केवल अर्थ कहता है ये तीनों अकुटुम्बभर होते हैं, उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। चौथा मंखपुत्र त्रिकयोग अर्थात् फलक के साथ, गाथाओं का उच्चारण तथा उनका अर्थ कहता हुआ घूमता है। उसे बहुत मिलता है और वह कुटुंबभर होता है।
(इस दृष्टांत का उपनय इस प्रकार है-व्यक्तिकरण के चार विकल्प हैं - एक को सूत्र आता है, अर्थ नहीं। दूसरे को अर्थ आता है, सूत्र नहीं। तीसरे को दोनों ज्ञात हैं । चतुर्थ को न सूत्र याद है और न अर्थ इनमें प्रथम दो तथा चतुर्थ ये प्रथम तीन मंखपुत्रों के सदृश अपने प्रयोजन के साधक नहीं होते तीसरा व्यक्तिकर चौथे मंखपुत्र की भांति अपने प्रयोजन का साधक होता है।)
२०१. जे जम्मि जुगे पवरा, तेसि समासम्मि जेण उम्महियं ।
परिवाडीण पमाणं, बुच्छं वत्तीकरो स खलु ॥ जो जिस युग में प्रधान होते हैं, उनके पास से जिस ग्रहणधारणा समर्थ शिष्य ने ज्ञानार्जन किया है, वह व्यक्तिकर होता है । ग्रहण विषयक परिपाटियों का प्रमाण आगे कहूंगा। २०२. निक्खेवा य निरुत्ताणि जा य कहणा भवे पगासस्स ।
जह रिसभाईयाऽऽहं किमेवं वज्रमाणो वि॥ निक्षेप, निरुक्त, अर्थ का कथन, एकार्थकों का कथन, जैसे ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने किया है, क्या उसी प्रकार से वर्द्धमान ने भी किया है? हां, सबकी प्ररूपणा समान है। २०३. धिय- संघयणे तुल्ला, केवलभावे य विसमदेहा वि।
केवलनाणं तं चिय, पन्नवणिज्जा य चरमे वि ॥ (शिष्य ने पूछा- ऋषभ आदि तीर्थंकरों की अवगाहना बहुत थी और भगवान् वर्द्धमान केवल सातरत्निप्रमाण के थे। फिर उनका वैसे ही प्ररूपण कैसे संभव है?) आचार्य कहते हैं-तीर्थंकर विषम देह वाले होने पर भी धृति, संहनन और केवल भाव में तुल्य होते हैं। जैसे ऋषभ आदि में केवलज्ञान था वैसा ही केवलज्ञान चरम तीर्थंकर वर्द्धमान का था। वे ही प्रज्ञापनीय भाव थे । इस प्रकार वे सब तुल्य थे। २०४. नायज्झयणाहरणा, इसिभासियमो पइन्नगसुया य ।
एए हुति अनियया निययं पुण सेसमुस्सण्णं ॥ ज्ञाताधर्मकथा के दृष्टांत, ऋषिभाषित तथा प्रकीर्णकसूत्रये सब अनियत होते हैं। शेष पुनः प्रायशः नियत होता है। २०५. जह सव्वजणवएसुं, एक्वं चिय सगडवत्तिणिपमाणं । विसमाणि य वत्थूणी, सगडाईणं तह निरुत्ता ॥
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यद्यपि शकट, गंत्री आदि विषम वस्तुएं हैं कुछ बड़ी होती हैं और कुछ छोटी, फिर भी सभी जनपदों में, समय के अनुसार शकटवर्त्तनी शकटमार्ग का एक ही प्रमाण होता है। सर्वत्र जुओ का प्रमाण चार हाथ है। शकटवर्त्तनी की भांति ही निरुक्त, निक्षेप आदि की निरूपणा भी सभी अहंतों की समान होती है।
२०६. जइ वि य वत्थू हीणा, पुब्बिल्लरहेहिं संपयरहाणं ।
तह वि जुगम्मि जुगम्मी, सहत्थचउहत्थगा अक्खा ॥ यद्यपि पूर्वतर वस्तु रथों से वर्तमानकाल के रथ हीन हैं फिर भी प्रत्येक युग में स्वहस्त से चतुर्हस्तक जुने होते हैं। २०७ पुरिमेहिं जह वि हीणा, इंदियमाणा उ संपयनराणं ।
तह वियसि उवलब्द्धी, खित्तविभागेण तुल्ला उ ॥ यद्यपि पूर्वकाल के मनुष्यों से वर्तमान के पुरुषों की इन्द्रियां हीन प्रमाणवाली हैं, फिर भी आत्मांगुल के आधार पर क्षेत्रविभाग से इनकी तुल्य उपलब्धि है । २०८. अणुपुब्बी परिवाडी, कमो य नायो ठिई य मज्जाया।
हो विहाणं च तहा, विहीऍ एगडिया हुति ॥ विधि शब्द के ये एकार्थिक हैं- आनुपूर्वी, परिपाटी, क्रम, न्याय, स्थिति, मर्यादा और विधान
२०९. सुत्तत्थो खलु पढमो, बिइओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ।
तइओ य निरवसेसो, एस विही भणिय अणुयोगे ॥ अनुयोग की यह विधि कही गई है
पहली परिपाटी में सूत्र का अर्थ कहना चाहिए। दूसरी परिपाटी में नियुक्तिमिश्रित उसका कथन करना चाहिए। (ये दोनों अध्ययन की परिसमाप्ति पर्यन्त कथनीय हैं।) तीसरी परिपाटी में संपूर्ण अनुयोग का कथन करना चाहिए अर्थात् पद, पदार्थ, चालना, प्रत्यवस्थान आदि से विस्तृत कथन करना चाहिए। (यह अनुयोग की विधि ग्रहण - धारणा समर्थ शिष्यों के प्रति है। )
सत्तमए ॥
२१०. मूयं हुंकारं वा, बाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिणि मंदमति के लिए अनुयोग की विधि यह है(१) शिष्य गुरु की वाचना को मूक होकर सुने, मौनभाव से सुने ।
(२) फिर हुंकार दे, वंदना करें।
(३) बाढ़कार करे- ऐसी ही है यह यह प्रशंसा करे। (४) प्रतिपृच्छा करे-भंते! यह कैसे ? (५) विमर्श करे प्रमाण की जिज्ञासा करे।
(६) शिष्य उपदिष्ट विषय का पारायण कर लेता है। (७) सातवें में वह परिनिष्ठा अर्थात् गुरु की भांति व्याख्या करने में सक्षम हो जाता है।
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