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= बृहत्कल्पभाष्यम्
२. सक्कयपाययवयणाण विभासा जत्थ जुज्जते जं तु। एक जीवद्रव्य अथवा अनेक जीवद्रव्यों में तथा
अज्झयणनिरुत्ताणि य, वक्खाणविही य अणुओगो॥ उसके विपक्ष अर्थात् एक अजीवद्रव्य अथवा अनेक
संस्कृत और प्राकृत भाषा के वचन (एकवचन, द्विवचन) अजीवद्रव्यों में जो मंगलसंज्ञा नियत होती है वह संज्ञामंगलजो जहां उचित हो, उनकी विभाषा-विवेचन करना तथा नाममंगल है। कल्प और व्यवहार-इन दोनों ग्रंथों के अध्ययननिरुक्त की ७. जा मंगल त्ति ठवणा, विहिता सब्भावतो व असतो वा। व्याख्यानविधि-यह अनुयोग है।
तत्थ पुण असब्भावे, मंगलठवणागतो अक्खो। ३. नंदी य मंगलट्ठा, पंचग दुग तिग दुगे य चोइसए। ८. जे चित्तभित्तिविहिया, उ घडादी ते य हुंति सब्भावे।
अंगगयमणंगगए, कायव्व परूवणा पगयं ॥ तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु॥
अनुयोग के प्रारंभ में मंगल के लिए नंदी का कथन करना जो सद्भूताकार अथवा असद्भताकार में मंगल की चाहिए। नंदी पांच ज्ञानात्मक है। ज्ञान पंचक दो भागों में स्थापना की जाती है, वह स्थापनामंगल है। अक्ष आदि में विभक्त है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन भेद मंगल की स्थापना असद्भाव स्थापनामंगल है। चित्रभित्ति पर हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान। परोक्ष ज्ञान के चित्रित घट आदि सद्भाव स्थापनामंगल हैं। जो देवलोक में दो भेद हैं...आभिनिबोधिकज्ञान तथा श्रुतज्ञान। श्रुतज्ञान के । चित्रभित्ति पर चित्रित घट आदि स्थापनामंगल होते हैं वे चौदह प्रकार हैं। अथवा श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंगगत तथा यावत्कथिक (शाश्वत) होते हैं और मनुष्यलोक में होनेवाले वे अनंगगत अर्थात् अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। उनकी प्ररूपणा इत्वरिक होते हैं। करनी चाहिए। यहां प्रकृत है-मंगलार्थ नंदी। उसका कथन ९. उत्तरगुणनिप्फन्ना, सलक्खणा जे उ होति कुंभाई। करना चाहिए।
तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ठ मंगलगा॥ ४. नंदी मंगलहेडं, न यावि सा मंगलाहि वइरित्ता। १०. गंतियं अणच्चंतियं च दव्वे उ मंगलं होइ।
कज्जाभिलप्पनेया, अपुढो य पुढो य जह सिद्धा॥ तब्विवरीयं भावे, तं पि य नंदी भगवती उ ॥
नंदी-ज्ञानपंचक का कथन मंगल के लिए वक्तव्य है। वह जैसे लोक में आठ मंगल होते हैं, वैसे ही उत्तरगुणों से नंदी गंगल से व्यतिरिक्त नहीं है। कार्य, अभिलाप्य तथा निष्पन्न तथा लक्षणयुक्त कुंभ आदि द्रव्यमंगल होते हैं। ज्ञेय-ये कारण अभिलाप तथा ज्ञान से अपृथक् और पृथक्- द्रव्यमंगल अनैकान्तिक तथा अनात्यन्तिक होते हैं। इसके दोनों प्रकार से सिद्ध हैं। (इसी प्रकार नंदी मंगल से पृथक् विपरीत अर्थात् भावमंगल ऐकान्तिक और आत्यन्तिक होता भी है और अपृथक भी है।)
है। वह भावमंगल है भगवान नन्दी। ५. नामं ठवणा दविए, भावम्मि य मंगलं भवे चउहा। ११. जह इंदो त्ति य एत्थं. त मग्गणा होति नाममादीणं।
एमेव होइ नंदी, तेसिं तु परूवणा इणमो।। सव्वाणुवायि सन्ना, ठवणादिपया उ पत्तेयं ।।
मंगल चार प्रकार का होता है-नाममंगल, स्थापनामंगल, (जहां केवल संज्ञा शब्द होता है वहां नाम, स्थापना आदि द्रव्यमंगल तथा भावमंगल। इसी प्रकार नंदी के भी चार चारों का समवतार होता है। जैसे किसी ने 'इन्द्र' शब्द का प्रकार हैं-नामनंदी, स्थापनानंदी, द्रव्यनंदी तथा भावनंदी। उन उच्चारण किया। यहां इस शब्द के साथ नाम आदि चारों की नाममंगल आदि की प्ररूपणा इस प्रकार है।
मार्गणा होती है। संज्ञा शब्द सर्वानुपाती होता है। अर्थात इन्द्र ६. एगम्मि अणेगेसु व, जीवद्दव्वे व तव्विवक्खे वा। मात्र कहने से नामइन्द्र, स्थापनाइन्द्र, द्रव्यइन्द्र और ___मंगलसन्ना नियता, तं सन्नामंगलं होइ॥ भावइन्द्र-चारों ग्रहण होते हैं। स्थापना आदि पद प्रत्येक १. सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा।
४. मूलगुण की अपेक्षा उत्तरगुण से निष्पन्न। मूल गुण है-पृथ्वीकायिक औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः॥
जीव-मिट्टी। उत्तरगुण है-कुंभकार द्वारा चक्र, दंड, सूत्र आदि के कल्प शब्द के छह अर्थ-सामर्थ्य, वर्णन, छेदन, करण, उपमा तथा प्रयत्न से निष्पन्न घट आदि। अधिवास।
५. पूर्ण कलश एकांततः सब के लिए मंगल है। परन्तु चोर और कृषक के २. विधिवद वपनाद् हरणाच्च व्यवहारः। यस्य नाऽऽभवति तस्य हापयति, लिए रिक्त घट शुभ होता है और गृहप्रवेश आदि में पूर्ण घट शुभ माना यस्य आभवति तस्मै ददाति व्यवहाराध्ययनवेत्तेति व्यवहारः।
जाता है। अतः वह अनैकान्तिक है। ३. श्लोक में प्रयुक्त 'अपि' शब्द की यह ध्वनि है कि नंदी मंगल से
किसी व्यक्ति ने शोभनद्रव्यों के शकुन से प्रस्थान किया और व्यतिरिक्त भी है। (वृ. पृ. ५)
आगे उसने अशोभन द्रव्य देखे। इससे पूर्व का शुभ प्रतिहत हो गया। अतः वह आत्यन्तिक है।
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